भारत की जातियां उद्भव एवं विकास

Origin and Development of Castes in India

पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु 

 
  • मूल रूप में जातियां कठोर न होकर परिवर्तनशील रही हैं। एक जाति में पायी जाने वाली हजारों उपजातियां इस बात की प्रमाण हैं कि उनमें अन्य जातियों आदि का मिलन होता रहा है। छोटी-छोटी जातियां सुरक्षा, शिकारकृषि आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मिलकर बड़ी जातियां बनती रही हैं। राष्ट्रीय बिरादरी का निर्माण भी इसी आधार पर हुआ है।
 
  • जातियों की अपेक्षा वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर तथा अपरिवर्तनशील मान्यताओं पर आधारित रही है। यह आज की आरक्षण व्यवस्था की विकृत रूप थी। बाद में वर्णों की कठोरता ही जातियों पर लाद दी गयी, जिससे जातियां भी वर्गों की तरह कठोर, अपरिवर्तनशील और बन्द द्वार बन गयी। विदेशों में वर्णारक्षण की कठोरता न थी। इसलिए वहां जर्मन, फ्रेंच, फ्रान्सीसी, जापानी जैसी राष्ट्रीय बिरादरियों का जन्म हुआ। भारत में वर्ण व्यवस्था ने जातियों को भारतीयनहीं बनने दिया।
 
  • जाति” शब्द वैदिक “ज्ञाति” का परिवर्तित रूप है। जिसका अर्थ है ज्ञात की सीमा में आने वाले लोग। इस प्रकार जाति किसी समूह की पहचान मात्र है। जाति को कठोरता के खूँटे में बाँधना उसके साथ अन्याय करना है।
 
  • जातियां आदिम अवस्था की सहज उत्पाद हैं जबकि वर्ण व्यवस्था मानव निर्मित है। यह वर्ण व्यवस्था न होकर वर्णारक्षण व्यवस्था रही है। इसकी उत्पत्ति जातियों से हुई है। क्योंकि विभिन्न जातियों के परिवारों को चारों वर्गों में रखा गया था।
 
  • जाति एवं वर्णों का उद्-विकास आदिम जनजातियों से हुआ है। आदिम जनजातियों के द्वारा कृषि कार्य शुरू किए जाने पर उन्हें कुर्मी/ किसान विश कहा जाने लगा। फिर कुर्मी किसानों में से विशेषीकरण के आधार पर काछी, बढई, लोहर, बनिया इत्यादि हजारों जातियों तथा प्रारम्भिक तीन वर्णों का उद् विकास हुआ। बाद में वर्षों में विदेशियों के मिश्रण से कुछ वर्ण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जाति के रूप में बदल गए। वर्ण जातियों के हजारों वर्ष बाद स्वार्थपूर्ति के लिए शासकों तथा पुरोहितों द्वारा बनाए गए।
 
  • भारत की प्रथम जाति विश/ कुर्मी/ किसान कही गयी। सर्वशक्तिमान होने से इसे असुर नाम प्राप्त हुआ। विदेशी सुरों/ आर्यों को इन्हीं मूल निवासियों ने अन्ततः शरण देकर यहां बसाया। आर्य सुर अधिकतर ब्राह्मण बन गए। यही कारण रहा कि आर्य, सुर (सुरा पीने वाले) भूसुर ब्राह्मण पर्यायवाची कहे जाने लगे।
 
  • भारत की वैदिक या पूर्व की संस्कृति यथार्थवादी रही है। यहां के निवासी अग्नि, सूर्य, इन्द्र, हवा, पानी, नदीपेड़, पहाड़, मेंढक, उल्लू, किसान जैसे वैदिक देवताओं की पूजा करते थे जो उनके जीवन तथा कृषि आदि में उपयोगी थे। उस समय भगवान नामक तत्व का जन्म नहीं हुआ था।
 
  • स्वर्ग, उसके अधिष्ठाता भगवान, सन्यास, मोक्ष, पुनर्जन्म इत्यादि का जन्म वैदिकोत्तर काल में शरण प्राप्त आर्यों के द्वारा हुआ। आर्यो सुरों, भूसुरों बाद के ब्राह्मणों ने अपनी मातृभूमि को स्वर्ग कहा और भारत के महापुरुषों ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि को स्वर्ग का अधिष्ठाता बनाकर प्रस्तुत कर दिया। उनके लिए मोक्ष अपनी मातृभूमि से मिलने का नाम है, जहां से वे भारत सहित मनुष्य लोक में नहीं आना चाहते। स्वर्ग आधारित आर्य संस्कृति हिन्दू संस्कृति नहीं है।
 
  • वेद आर्यों / ब्राह्मणों के ग्रन्थ न होकर असुरों कुर्मी कृषक जातियों के काव्य ग्रन्थ हैं। उनमें अध्याय के अध्याय मिलाकर आर्य ब्राह्मणों ने उन्हें अपना बनाने और अपने स्वर्ग चिन्तन को प्राचीनता प्रदान करने तथा उसे प्रस्थापित करने का कार्य किया।
 
  • आर्य ब्राह्मण इस देश के महापुरुषों के पुजारी रहे हैं। उनके लिए भारत की जजमान जातियां तथा उनके महापुरुष ही पूज्य रहे हैं। विदेशी होने से उन्हें सत्ता व सम्पत्ति से दूर रखा गया था कि कहीं देश व समाज के लिए वे संकट न पैदा कर सकें।
 
  • शरण देकर बसाये जाने के कारण ही आर्यो / ब्राह्मणों की हत्या को पाप कहा गया, क्योंकि शरणार्थी को मारा नहीं जाता है। आर्य ब्राह्मणों द्वारा सुर का अर्थ सुरा पीने वाले से बदलकर देवता किए जाने के कारण अनर्थ हो गया और पूज्य जजमान जातियों को ब्राह्मण अपने से हीन मानने का अपराध कर बैठे।
 
  • मोहनजोदड़ो, हडप्पा जैसी नगरीय संस्कृति का विनाश आर्यों ने नहीं किया, वरन् नगरों के शोषण से तंग आकर ग्रामीणों कुर्मी/ कृषकों ने अपने कृषक सम्राट महाकुर्मी इन्द्र के नेतृत्व में खूनी क्रान्ति के द्वारा उन्हें खंडहर तथा मुर्दों का टीला (मोहनजोदड़ो) में बदल दिया।
यह शोध ग्रन्थ भारत की हजारों जातियों, वर्णों की उत्पत्ति की शोधपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करती है। It provides a detailed explanation of the origin of thousands of castes and varnas of India.

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