आदि माता मनु (एक नयी ख़ोज): The First Mother Manu
वैश्वीकरण की प्रथम नायिका: मानव जाति कि जननी माता मनु और प्राचीन त्रिलोक का भूगोल
Table of Contents
- पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु
- प्रथम मनु पिता थी या सम्पूर्ण मानव जाति की मां ? (Was Manu the first father or the mother of all mankind?)
- क्या वाल्मीकि रामायण में भी मनु के स्त्री या पुरुष होने के बारे में कुछ लिखा है? (Has there been anything written in Valmiki’s Ramayana about Manu being a man or woman?)
- ब्रह्मा, विष्णु, शिव (तीनों) के कूर्मावतार होने का कारण (The reason behind Brahma, Vishnu, Shiva (all three) being Koormavatar)
- प्राचीन विश्व के स्वर्ग लोक, नरक लोक तथा सात पातालों की भौगोलिक स्थिति (The geographical location of the ancient world, heaven, hell, and the seven paataals)
- सारांश (Summary of Book)
- प्राक्कथन : प्रथम संस्करण – प्रो. राजेश्वर प्रसाद (प्रोफेसर, डिपार्टमेण्ट आफ कन्टेम्पोरेरी, डॉ.बी.आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा)
- क्या मनुस्मृति मनु की कृति है? (Is Manusmriti a work of Manu?)
- वैवस्वत मनु (सातवें मनु) कौन था और कहाँ से आया था ? और उसका स्वर्गलोक से क्या सम्बन्ध है ? (Who was Vaivasvata Manu (seventh Manu) and where did he come from? And how is he related to heaven?)
पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु
- पुस्तक चौदह मनुओं (उपाधि धारक) की श्रृंखला में प्रथम मनु / आदि माता मनु का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करती है । इसके अनुसार प्रथम मनु पिता नहीं मानव जाति की मां थी । माता मनु के नाम पर ही उनकी संतानें मनुष्य कही गयीं ।
- आदिम काल में, जबकि विवाह संस्था का जन्म नहीं हुआ था, संतान की पहचान मां से ही होती थी । जैसे पशुओं में आज भी गाय के बच्चे, बकरी के बच्चे कहे जाते हैं । सांड का बच्चा कोई नहीं कहता । अधिक पत्नियों की स्थिति में भी मां के आधार पर ही बच्चों की पहचान बनती है । जैसे प्राचीन जातियां माता दिति के बच्चे दैत्य, अदिति के बच्चे अदैत्य / आदित्य, दनु के बच्चे दानव और माता मनु के बच्चे मनुष्य / मानव कहे गये । जबकि सब के पिता कूर्म कश्यप थे । इसलिए सारी सृष्टि (मानव सृष्टि) काश्यपी कही गयी ।
- माता मनु और पिता कूर्म कश्यप की संतान मनुष्यों का वंश विस्तार सर्वाधिक हुआ । वंश विस्तार के कारण कूर्म कश्यप (पिता) को ही आध्यात्मिक भाषा में ब्रह्म या ब्रह्मा कहा गया क्योंकि ब्रह्म का अर्थ होता है जो फैले, जो बढ़े । यही कारण था कि माता मनु को सृष्टिकर्ता मनु और पिता ब्रह्मा (मूल नाम कूर्म कश्यप) को भी सृष्टिकर्ता कहा गया, क्योंकि मानव सृष्टि माता और पिता दोनों से ही संभव थी । फिर तो सुर, दानव, दैत्य सभी मानव संस्कृति में रंग कर मनुष्य कहे जाने लगे ।
- वाल्मीकि रामायण (अरण्य का.) में स्पष्ट लिखा है कि कश्यप पत्नी मनु की संतानें मनुष्य कही गई जो आगे चलकर चार वर्णों में बँट गयीं । इसमें वेद से लेकर पौराणिक ग्रंथों के प्रमाण देकर सिद्ध किया गया है कि प्रथम मनु पिता नहीं मां थी ।
- शतरूपा माता मनु का ही आध्यात्मिक नाम है । आध्यात्मिक भाषा में सृष्टि की रचना में सैकड़ों रूप धारण करने से उन्हें शतरूपा नाम दिया गया, जबकि ब्रह्म के मन को भा जाने के कारण ही सर्वप्रथम मनु कही गयीं थी ।
- ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘मनुष्पिता मनुरायेजे पिता तथा मनुर व्रनीता पितानस्ता’ जैसे शब्दों का अर्थ ‘मनु हैं पिता जिनके’ आधार पर मनु को पिता बना दिया गया जबकि ‘मनुष्पिता’ का अर्थ मनु के पिता (दक्ष) अथवा मनुष्यों के पिता कूर्म कश्य / ब्रह्मा अधिक सार्थक है । कारण मनु दक्ष की पुत्री थी और कश्यप मनु के पति तथा दक्ष के दामाद थे ।
- संस्कृत भाषा में ‘मनु जाती है तथा मनु जाता है’ दोनों का अनुवाद “मनु: गच्छति” होता है । इस कारण पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता ने स्त्री मनु को पुरुष मनु बना दिया ।
- प्रथम मनु माता मनु है प्रथम विधि वेत्ता, प्रथम समाजशास्त्री तथा वैश्वीकरण की प्रथम प्रस्तोता थीं । हम सब मनुष्य इन्हीं के नाम पर कहे गए तथा मन्वंतर सिद्धांत भी इन्हीं के नाम पर शुरू हुआ ।
- पुस्तक में प्राचीन विश्व के स्वर्ग लोक, नरक लोक तथा सात पातालों की भौगोलिक स्थिति का सप्रमाण विश्लेषण किया गया है, जिसमें उत्तरी विश्व, विशेषकर यूरोपीय प्रदेशों को स्वर्ग लोक, मध्य विश्व के शराष्ट्रों को नरक लोक तथा दक्षिणी विश्व के राष्ट्रों को पाताल लोक कहा जाता था । तब भारत मनुष्य लोक था । माता मनु की संस्कृति के विस्तार ने तीनों लोकों के अस्तित्व को समाप्त कर उन्हें मनुष्य लोक का हिस्सा बना दिया, फिर तो वहां के निवासी भी मनुष्य कहे जाने लगे । विश्व की यह पहली प्रक्रिया थी, जिसे लेखक ने वैश्वीकरण, मानुषीकरण, कौर्मीकरण जैसे विविध नामों से प्रस्तुत किया है ।
सारांश
पुस्तक ‘आदि माता मनु‘ मानव जाति की पहचान माता मनु अथवा स्वायंभुव मनु का प्रामाणिक इतिहास है। इसमें मनु के मानवों की माता होने के साथ ही उनके स्त्री से पुरुष के रूप में रूपांतरण की कहानी का भी खुलासा किया गया है। शतरूपा माता मनु का ही दूसरा नाम था। यह मनु कूर्म कश्यप की पत्नी थी। कूर्म कश्यप ही धार्मिकों का ब्रह्मा है। ‘ब्रह्मा’ कूर्म कश्यप की एक उपाधि थी। कूर्मावतार कछुआ न होकर आदि मानव का कुर्मी (कृषक) के रूप में रूपान्तरण है। कूर्म कुर्मी का पुल्लिंग है और कूर्मावतार सर्वश्रेष्ठ कुर्मी अर्थात् कृषक को कहा जाता था। यही कारण है कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव (तीनों) को कूर्मावतार कहा गया है।
मनुष्य, विश, कुर्मी, कृषक, व्रात्य पर्यायवाची हैं। यही भारत के मूल निवासी हैं। मनुष्यों तथा विशों के विस्तार से ही संपूर्ण भूमंडल विश्व तथा मनुष्य लोक कहा गया। माता मनु से ही मन्वन्तर शुरू हुए और इन्होंने ही सर्वप्रथम सामाजिक जीवन के लिए प्रथम विधि विधान भी दिए। अतः आप को प्रथम विधि वेत्ता का सम्मान मिला। मनु का आचरण ही लोगों के लिए मार्गदर्शक था। अतः वहीं प्रथम क्रियात्मक समाज शास्त्री थीं।
आज की ‘मनुस्मृति’ माता मनु की कृति नहीं है। इसे तो हिन्दुओं के दुश्मन आर्यों ने अपना खोटा सिक्का चलाने के लिए पुष्यमित्र शुंग के काल में मनु के नाम पर प्रस्तुत किया। माता मनु की क्रैषिक संस्कृति ही हिंदू संस्कृति है। स्वर्गवादी संस्कृति हिंदू संस्कृति नहीं है। स्वर्ग सुरों (सुरा पीने वालों) अथवा आर्यों की मातृभूमि को कहा गया था। उत्तरी विश्व के 21 राष्ट्र ही सुरों के 21 स्वर्ग कहे गए हैं और दक्षिणी विश्व के राष्ट्र ही सात पाताल तथा मध्य विश्व के 21 राष्ट्र ही ब्राह्मणों के लिए नरक (मनुष्य लोक) थे। प्रथम भूमंडलीकरण की प्रक्रिया माता मनु ने शुरू की थी जो कृषकीकरण, कौर्मीकरण, वैश्वीकरण जैसे नामों से जानी गयी। इसी प्रक्रिया ने तीनों लोकों को एक विश्व का अंग बना दिया। प्राचीनतम पुस्तक वेद आर्य ग्रंथ न होकर विशों कुर्मी कृषकों के काव्य गीत हैं और वेदों का सर्वश्रेष्ठ देवता इंद्र आर्य न होकर कृषक सम्राट महाकुर्मी है। स्वर्ग विजय के बाद वह सुरों का भी राजा बन गया था। जब खेती की संस्कृति तीनों लोकों में पहुँच गयी तो धार्मिकों ने स्वर्ग और नरक का
आसमानीकरण कर दिया। उपाधिधारी सातवाँ वैवस्वत मनु सुर/आर्य जाति का विदेशी ब्राह्मण (भूसुर) था, मनुस्मृति के लेखन में इसके हाथ को नकारा नहीं जा सकता है। यह यमन देश के राजा यमराज का भाई था। यमराज स्वर्ग और मनुष्य लोक के बीच का दलाल था, जो स्वर्ग की अप्सराओं से मिलाने का कार्य करता था।
जल प्रलय से बचाने वाली माता मनु (नूह), पिता कश्यप (ब्रह्मा) और उनकी संतानें थीं। कश्यप/ब्रह्मा को ही पश्चिम में आदम या एडम कहा गया। मत्स्यावतार कोई मछली भगवान न होकर मछली के आकार की विशाल नाव थी, जिसे मल्लाहों आदि ने खेकर पर्वत पर टिकाया था, जिससे सृष्टि बची।
मनु का भारत (सप्त सिंधु देश) ही आदिम सृष्टि एवं आदिम संस्कृति का जनक रहा है और मनुष्य तथा मनुष्य लोक नामकरण माता मनु के नाम पर ही हुआ है। मानवों के पिता तो कश्यप (ब्रह्मा) थे, जिनके नाम पर सारी सृष्टि ‘काश्यपी’ कही गयी।

प्राक्कथन (प्रथम संस्करण)
इस बात को सभी स्वीकार करते हैं कि मनु का प्राचीन विश्व के इतिहास से गहरा संबंध रहा है। समस्त द्विपाद जाति का “मनुष्य” या “मानव” नामकरण मनु के प्रभाव का प्रमाण हैं। विश्व की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद से लेकर पूर्व एंव पश्चिम के समस्त प्राचीन धर्मग्रंथों में मनु, मनुष्य, मानव, मेनस, मैन (Man) जैसे शब्दों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि मनु का अस्तित्व अत्यंत प्राचीन काल से रहा है। वेदों में मनु, मानव, मनुष्य जैसे शब्दों का सैकड़ों बार प्रयोग हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि मनु का अस्तित्व वैदिक काल अथवा उसके पूर्व से रहा हैं। पौराणिक ग्रंथों में प्राप्त चौदह मनुओं की परंपरा मनु के अस्तित्व और उसके योगदान को और भी ऊँचाई प्रदान करती है।
डॉ. श्याम लाल सिंह देव “निर्मोही” की कृति “आदि माता मनु और मानुषीकरण : प्राचीन विश्व का एक वैज्ञानिक अध्ययन“ प्रथम मनु के क्रिया व्यवहार और उसके वैश्विक योगदान से सम्बन्धित है। निश्चय ही निर्मोही के इस कथन में सच्चाई प्रतीत होती है कि प्रथम मनु (आदि मनु) को ही मनु कहा जा सकता है। शेष मनुओं को मनु नहीं कहा जा सकता और न ही उनके विचारों को मनु के नाम से प्रस्तुत किया जा सकता है, क्योंकि उनके अपने नाम थे, जिन्हें “मनु” की उपाधि प्राप्त हुई थी। वैदिकोत्तर संस्कृत साहित्य में प्रथम मनु का स्थान गौण दिखाई देता है, जबकि उपाधिधारक वैवस्वत मनु (सातवें मनु) को विशेष स्थान दिया गया है। ऐसी स्थिति में डॉ. निर्मोही द्वारा प्रथम मनु को अपनी लेखनी का विषय बनाया जाना विशेष महत्व रखता है।
मनु के संबंध में केवल मोतवानी, सत्यमित्र दुबे जैसे अनेक समाज शास्त्र के विद्वानों ने अपनी लेखनी चलायी है, परंतु किसी ने प्रथम मनु को रेखांकित करने की कोशिश नहीं की है। सभी ने परंपरागत रूप से प्रचलित मनुस्मृति के आधार पर ही मनु की कल्पना कर उसका मूल्यांकन किया है, परंतु मनु से संबंधित समस्त परंपरागत प्रस्थापनाओं से अलग हटकर डॉ. निर्मोही की यह कृति प्राचीन भारतीय समाज व संस्कृति ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की दृष्टि से अनेक नये आयाम प्रस्तुत करती है। इतना ही नहीं यह कृति मनु, मनुष्य, मानव समाज व संपूर्ण विश्व के संबंध में नये-नये प्रश्न खड़ा करेगी और उन्हें नये सिरे से देखने की नयी दृष्टि भी प्रदान करेगी, ऐसा मुझे लगता है।
अभी तक मनु मानव जाति का पिता और प्रथम पुरुष माना जाता रहा है। पौराणिक साहित्य के अनुसार मनु मनुष्यों का पिता था और उसी के नाम पर मानव जाति का “मनुष्य” या “मानव” नामकरण हुआ। परंतु डॉ. श्याम निर्मोही ने इसके पूर्णतः विपरीत यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रथम मनु स्त्री थी और वह मनुष्यों की माँ थी । ‘माता मनु‘ के नाम पर ही उसकी संतानें मनुष्य या मानव कही गयी और मनुओं की परंपरा भी यहीं से प्रारंभ हुई। आपकी प्रस्थापना के अनुसार शतरुपा मनु का ही आध्यात्मिक नाम है। औपनिषदिक संकल्पना में यह ब्रह्मा के मन से पैदा हुई थी, अतः वह मनु कही गयी और उसने सैकड़ों रूप धारण कर संपूर्ण सृष्टि को संभव बनाया था, अतः वही शतरूपा भी कही गयी। संभवतः भाष्यकारों की गलती या पितृसत्तात्मक संस्कृति के उद्भव से स्त्री मनु, पुरुष बना दी गयी। उपनिषदकारों ने कश्यप (जिसके नाम पर संपूर्ण सृष्टि काश्यपी कही गयी) को ही बह्मा बनाकर प्रस्तुत किया है। अपनी इन प्रस्थापनाओं को सिद्ध करने के लिए डॉ. निर्मोही द्वारा जो तथ्य, तर्क तथा प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं, वे निश्चय ही भारत ही तो नहीं संपूर्ण विश्व की मनीषा को झकझोरने वाले हैं। मेरी दृष्टि से यह विद्वानों के लिए एक चुनौती है कि वे इसका खण्डन करें अथवा मण्डन।
सामान्यतया मनु को मनुस्मृति का लेखक माना जाता रहा है और भारतीय सामाजिक व्यवस्था से संबंधित अधिकांश निष्कर्ष इसी के आधार पर निकाले जाते रहे हैं। समाजशास्त्रीय जगत में भी मनुस्मृति के ही विचारों को मनु का कहकर प्रस्तुत किया जाता रहा है। परंतु डॉ. निर्मोही ने अपनी इस कृति में स्पष्ट रूप से घोषित किया है कि मनुस्मृति मनु की कृति नहीं है। आपने प्रति प्रश्न खड़ा करते हुए कहा है कि जब मनुस्मृति के लेखक ने पुस्तक के साथ अपना नाम नहीं दिया है तो उसे मनु की कृति कैसे कहा जा सकता है? आपके अनुसार मनुस्मृति के आधार पर लेखक के रूप में मनु की कल्पना करना मूर्खता का द्योतक है और उसके विचारों को मनु के नाम से प्रस्तुत करना तो और भी बड़ी मूर्खता है।
डॉ. निर्मोही ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि मनु नामक चरित्र वैदिक या उससे पूर्व का है। ऐसी स्थिति में मनुस्मृति यदि मनु की कृति होती अथवा वह स्मृति के माध्यम से आयी हुई होती तो उसकी भाषा कम से कम वैदिक होती, क्योंकि कविता जिस रूप में याद की जाती है, उसी रूप में आगे बढ़ती है, परंतु मनुस्मृति की भाषा तो पाणिनी के व्याकरण से युक्त, पूर्णतः परिष्कृत संस्कृत की है। इतना ही नहीं उसके विचार भी वैदिक न होकर वेदांत और पुराणों आदि से प्रभावित हैं। अतः वह प्राचीन न होकर बहुत ही अर्वाचीन है। ऐसी स्थिति में वैदिक या उससे पूर्व की चरित्र मनु को मनुस्मृति का लेखक नहीं माना जा सकता।
वैसे भी देखा जाये तो अनेकानेक स्मृतियों जैसे नारद स्मृति, पाराशर स्मृति, गार्ग्य स्मृति, व्यास स्मृति, वसिष्ठ स्मृति इत्यादि सैकड़ों स्मृतियों की लंबी श्रृंखला में मनुस्मृति भी एक है। यह उत्तर भारत के प्राचीन काल में महत्त्व रखने वाले-भूभाग उत्तर प्रदेश, बिहार, आज के मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ भागों में स्वीकार्य और प्रचलित थी। इसलिए अधिक चर्चित तथा मान्य थी। अंग्रेजों ने जब हिंदू तथा इस्लामी कानून का सार्वभौमीकरण करने की प्रक्रिया शुरू की, तब मनुस्मृति को अधिक महत्त्व मिला।
मनुस्मृति सदैव से एक विवादास्पद कृति रही है। इसमें दी गयी व्यवस्थाएँ दलितो, महिलाओं तथा पिछड़ी जातियों के लिए कठोर, असम्मानजनक और कहीं-कहीं तो अमानवीय है। आज के सामाजिक तथा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में तो मनुस्मृति की व्यवस्थाएँ प्रस्थापित सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय के विपरीत है और इसीलिए इसे ब्राह्मण सर्वोच्चता का चार्टर कहा जाता है। आज भी उच्च वर्णीय हिंदू मनुस्मृति को आदर्श मानते हैं और समतामूलक व्यवस्था का विरोध करते हैं। राम जन्म भूमि विवाद (1990-92) में आगरा की एक सभा में एक सन्यासी कहे जाने वाले श्री वामदेव ने तो यहाँ तक कह डाला कि भारत का संविधान निरर्थक है और “हमारा संविधान तो मनुस्मृति ही है।“ परंतु इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि स्मृति काल में भी मनुस्मृति न तो एकमात्र स्मृति थी और न ही सर्वमान्य।
मनुस्मृति इसलिए भी विवादित है क्योंकि यह ग्रंथ आदि-मनु द्वारा रचित है, यह विवादित है और डॉ. श्याम निर्मोही ने तो यही विवाद खड़ा किया है कि आदि-मनु वह ‘पुरुष‘ नहीं जिसकी कल्पना हमारे वांग्मय में की गयी है। दूसरे यह प्राचीनतम स्मृति है, प्राग-ऐतिहासिक है, यह इसलिए भी सत्य नहीं है क्योंकि विवाह (अनुलोम-प्रतिलोम), परिवार संरचना, समाज व्यवस्था विशेषकर वर्ण व्यवस्था, जिसका उपाख्यान मनु-स्मृति में मिलता है, प्राचीन नहीं हैं। ऋग्वेद के प्रक्षिप्त अंश दशम मण्डल के (पुरुष सूक्त) से पहले के मण्डलों में वर्णों का ऐसा वर्णन भी नहीं मिलता है।
यह कहना कि श्रुति या स्मृति की परंपरा में लेखक के नाम को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता था, भी पूर्णतः गलत है। आखिर उसी परंपरा में वेदों के मंत्र द्रष्टा ऋषियों के नाम कैसे सुरक्षित रखे जा सके, क्योंकि वेदों में मंत्र दृष्टा ऋषियों के नाम के साथ उनके मंत्रों का उल्लेख हुआ है। इतना ही नहीं स्मृतियों से पूर्व के माने जाने वाले आपस्तम्ब धर्मसूत्र, बोधायन धर्मसूत्र जैसे धर्मसूत्रों (कानून की पुस्तकों) का प्रणयन भी उनके रचनाकारों के नाम के साथ हुआ है। रामायण के रचनाकार का नाम पुस्तक के साथ जुड़ा है। महाभारत भी वेद व्यास रचित 8800 श्लोकों वाले “जय“ और “भारत“ का संयुक्त नाम था, जिसमें मिलावट कर उसे एक लाख श्लोकों से ऊपर ले जाया गया, परंतु मिलावट करने वालों ने अपना नाम नहीं दिया। मनुस्मृति सहित अन्य स्मृतियों, पुराणों आदि के लेखकों ने अपना नाम क्यों नहीं दिया, यह एक गंभीर विषय है। इसे यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि ऋषि अपना नाम नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपना नाम नहीं दिया। इन पुस्तकों के लेखकों का नाम न होने से तो पुस्तक की प्राचीनता और प्रामाणिकता भी संदिग्ध हो जाती है। निश्चय ही डॉ. निर्मोही की इस प्रस्थापना में सच्चाई नजर आती है कि मनुस्मृति सहित इन ग्रंथों के रचनाकारों ने प्रस्थापित प्राचीन महापुरुषों के नाम पर अपना खोटा सिक्का चलाने के लिए ही पुस्तक के साथ अपना नाम नहीं दिया, क्योंकि इसमें उनका व्यक्तिगत एवं जातीय हित सुरक्षित था। स्मृतियाँ चूंकि कानून की पुस्तक थीं और कानून को किसी नये रचनाकार के नाम पर लागू नहीं करवाया जा सकता था, जबकि प्रस्थापित वैदिक चरित्रों या महापुरुषों के नाम पर उन्हें लागू करवाना सरल था, क्योंकि जनता उनके ऊपर श्रद्धा रखती थी। यही कारण था कि इन पुस्तकों के लेखकों ने अपने ज्ञान या अज्ञान को मनु आदि की स्मृति कहकर प्रस्तुत किया और अपना नाम नहीं दिया। स्मृतियों के प्रावधानों की प्रामाणिकता वैसे भी संदिग्ध है। सभी स्मृतियों में और विशेषकर मनुस्मृति में उच्छृखल तरीके से प्रक्षेपण हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह सिद्ध है कि पुश्य मित्र शुंग, जो एक विदेशी व्यक्ति था और जिसने बौद्ध सम्राट बृहद्रथ को मार कर सत्ता हथिया ली थी। उस शुंग ने अपने आपको ब्राह्मण घोषित किया था तथा बौद्धों पर क्रूर अत्याचार किये थे। उसी शुंग तथा शुंग वंश के तथाकथित ब्राह्मण राजाओं ने स्मृति आदि धर्मग्रंथों में व्यापक परिवर्तन किये और कराये थे। कुछ भी हो डॉ. निर्मोही की इन प्रस्थापनाओं से विद्वान समहम हों या न हों, परंतु यह उनके लिए चुनौती तो है ही कि वे इनका समुचित उत्तर दें।
हमारी ज्ञान प्राप्ति की परंपरा श्रुति तथा उसको अक्षुण रखने की परंपरा स्मृति रही है। लिपि विहीन समाजों में लेखन की परंपरा नहीं थी। भारतीय समाज भी इनमें से एक रहा है। अब यह मान लेना कि पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुति-ज्ञान को जस का तस स्मृति से किसी एक पीढ़ी में, जब लिपि का विकास हुआ होगा, लिपि-बद्ध किया गया होगा, अविश्वसनीय लगता है। धार्मिक, सामाजिक व्यवस्थाओं में तो वैसे भी समयानुकूल परिवर्तन हुआ ही है। विभिन्न स्मृतियों का होना भी इसका एक प्रमाण है। न केवल काल परिवर्तन वरन् स्थान परिवर्तन भी प्रावधानों की विविधता के लिए उत्तरदायी होते हैं। अब अगर दक्षिण के एक हिन्दू समुदाय के लोग मामा भान्जी के विवाह को मान्यता प्रदान करते हैं तो मनुस्मृति इसमें क्या टांग अड़ा पाई? मेरी मान्यता है कि पुराने युग में जो आश्रमों की व्यवस्था थी, जिनमें ऋषि लोग विद्या/ज्ञान दिया करते थे, उन्हीं के नाम से धार्मिक वैचारिकी, दर्शन, स्मृति आदि प्रचलित हुए। वसिष्ठ, नारद, अगस्त्य, विश्वामित्र, पाराशर आदि के आश्रमों से ही विभिन्न व्यवस्थाओं का प्रार्दुभाव हुआ। ऐसा नहीं है कि वसिष्ठ, विश्वामित्र, नारद सैकड़ों हजारों साल जिये। सच तो यह है कि इनके आश्रम स्थापित, पोषित तथा सक्रिय रहे, जैसे आज के विश्वविद्यालय। चूंकि ये आश्रम आर्यों और ब्राह्मणों द्वारा स्थापित थे, इसीलिए उनमें समय, काल, स्थान की विभिन्नता होते हुए भी समानता दिखती है।
ब्राह्मणिक साहित्य में जिस वैवस्वत मनु (सातवें मनु) को विशेष स्थान दिया गया है और जिसे मनुस्मृति के लेखन का श्रेय भी दिया जाता है, उसके बारे में डॉ. निर्मोही ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि वह भारत का न होकर स्वर्गलोक से आया था। अतः वह विदेशी था। उसी ने कर्मभूमि भारत की संस्कृति के विरुद्ध अकर्म, भाग्य, ईश्वर, मोक्ष इत्यादि पर आधारित स्वर्गवादी संस्कृति की नींव रखी, जिससे धीरे-धीरे भारतीय मनुष्य लोक के गीत गाना छोड़कर स्वर्ग जाने, मोक्ष प्राप्त करने, ईश्वर, दर्शन और बिना कर्म किये सब कुछ प्राप्त करने की कामना करने लगे। आपकी प्रस्थापना के अनुसार वेदांत और वैदिकोत्तर संस्कृत साहित्य स्वर्गवादी संस्कृति से भरा पड़ा है, जिसके रचनाकार स्वर्गलोक से भूलोक पर आकर भूसुर बने हुए वैवस्वत मनु जैसे सुर या आर्य जाति के ब्राह्मण थे। वे स्वर्गलोक से आये थे, इसलिए अपने पूर्व देश स्वर्ग की महिमा के गीत गाने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने धीरे-धीरे यहाँ के लोगों से भी अपने पूर्व देश स्वर्ग की महिमा के गीत गवाना शुरू कर दिया। निश्चय ही डॉ. निर्मोही की यह प्रस्थापना चुनौतीपूर्ण है कि वेदान्त, गीता और वैदिकोत्तर संस्कृत साहित्य पर आधारित स्वर्गवादी संस्कृति हिंदू संस्कृति नहीं है। क्योंकि यह वेदों के विपरीत है। आपने प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि ऋग्वेद कुर्मी कृषकों (विशों) का काव्य संग्रह है और ऋग्वैदिक संस्कृति पर आधारित क्रैषिक संस्कृति ही हिन्दू संस्कृति है। स्वर्गवादी संस्कृति तो उस पर थोपी गयी है।
डॉ. निर्मोही की यह प्रस्थापना भी विचारणीय है कि आदिम जातियों से निकलकर मानव की ‘कुर्मी किसान‘ के रूप में प्रथम पहचान बनी। वही से सभ्यता का जन्म भी होता हुआ दिखाई देता है। आपके अनुसार कुर्मी कृषक जाति में से ही निकलकर आज की अधिकांश विकसित जातियों का उद्विकास हुआ है। फिर विदेशी सुरों या आर्यों ने संपूर्ण क्रैषिक संस्कृति को विकृत कर उसे सुर संस्कृति के रूप में रूपान्तरित कर दिया। इसलिए यहाँ के ऐतिहासिक वैदकि चरित्रों शिव, ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, दुर्गा, लक्ष्मी, राम, कृष्ण इत्यादि (सभी कृषक) का काल्पनीकीकरण किया गया। ऐसा उन्होंने स्वयं को यहाँ प्रस्थापित करने के लिए किया। आपके अनुसार वर्ण व्यवस्था की प्रस्थापना और कुछ न होकर भूसुर ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा अपने लिए सुखों का आरक्षणीकरण था। निश्चय ही डॉ. निर्मोही की यह प्रस्थापना भारतीय समाज व संस्कृति को नये सिरे से देखने के लिए बाध्य करेगी।
पुस्तक के दूसरे भाग में मनु की क्रैषिक संस्कृति और उसकी प्रसार प्रक्रिया के रूप में जो मानुषीकरण/कृषकीकरण/वैश्वीकरण/ब्रात्यीकरण/कौर्मीकरण की संकल्पना दी गई है, वह वास्तव में समाजशास्त्रियों के लिए एक विचारणीय प्रश्न है। निश्चय ही इस प्रक्रिया के माध्यम से भारत की क्रैषिक जातियों के अध्ययन के आधार पर भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के अतीत की ओर जाया जा सकता है। मानुषीकरण व कौर्मीकरण को लेखक ने संस्कार की प्रथम भूमण्डलीकरण प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने संपूर्ण विश्व को अपने रंग में रंग दिया। यह समाजशास्त्रीय जगत के लिए शोध की वस्तु है।
परिकल्पनाएँ तो परिकल्पनाएँ ही होती है। स्वर्ग, नरक, मनुष्यलोक तथा पाताल लोक का वर्णन हमारी कथाओं में आता है, इसके बारें में भी डॉ. निर्मोही ने पौराणिक संकल्पना के तीनों लोक-स्वर्ग लोक, नरक लोक, पाताल लोक की जो भौगोलिक स्थिति बतायी है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि स्वर्ग, नरक, पाताल, आदि किसी अदृश्य जगत की वस्तु न होकर इसी भूमण्डल के अंग थे। कालांतर में मानुषीकरण की प्रक्रिया ने उनके अलग अस्तित्व को समाप्त कर उन्हें मनुष्यलोक का हिस्सा बना दिया। वैज्ञानिक वृत्ति का कोई भी व्यक्ति डॉ. निर्मोही की इस खोज से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता। प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित श्री वेदालंकार की पुस्तक “भारत के प्राणाचार्य”, जो कुछ दशक पहले मैंने पढ़ी थी, की याद ताजा हो गयी। उसमें भी स्वर्ग, नरक की न केवल परिकल्पना है, वरन सप्रमाण वर्णन है कि भारत में आये आर्यों का स्वर्ग लोक हिमाचल स्थित गंधर्व एवं किन्नर प्रदेश था और नरक लोक आज के गंगा यमुना के दोआब अर्थात् मैदानी क्षेत्र को कहा जाता था। शतपुत्रों की आकांक्षा इसलिए की क्योंकि खेती करने के लिए परिवार में अधिक हाथों की आवश्यकता होती थी। इसी प्रकार गोरे लोगों के स्थान स्वर्ग लोक और मनुष्यों के वहाँ आने-जाने की जो परिकल्पना इस पुस्तक में है, वह विवादास्पद तो हो सकती है, परंतु पूर्णतया अमान्य नहीं। अब यदि प्रोफेसर मो. अली के “ज्याग्रफी आफ द पुराणाज” को देखो तो इन कबीलों के वहाँ आने-जाने की पुष्टि होती है। हालांकि पुराणों को काल्पनिक दंत कथाएँ ही माना जाता है और धर्म ग्रंथों में सबसे बाद का भी, परंतु उनमें वर्णित स्थानों, देशों, द्वीपों के आधार पर अली साहब ने कुछ मानचित्रों, नक्शों का जो निर्माण किया है, वह पूर्णतः निराधार नहीं है। पौराणिक कथाओं में देवों, असुरों, दानवों आदि के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने के अनेकानेक वर्णन हैं। डॉ. निर्मोही जी ने भी ऐसे वृतांत दिए हैं जिनसे स्थानान्तरण | (Migration) के कुछ पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। वास्तव में डॉ. निर्मोही जी की यह प्रस्थापना यदि स्वीकार कर ली जाती है तो निश्चय ही अंधविश्वास और अज्ञान पर आधारित स्वर्गवादी संस्कृति शीघ्र ही धराशायी हो जायेगी और पुनः कर्मवाद पर आधारित वैदिक अथवा क्रैषिक संस्कृति को प्रस्थापित होने से कोई नहीं रोक सकेगा।
लेखक ने इग्लैंड सहित अन्य यूरोपीय देशों, अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया आदि के वैश्वीकरण के जो तथ्यपूर्ण उदाहरण दिए हैं, उससे आज के कट्टर पंथी हिंदू अवश्य खुश होंगे कि सप्त सैन्धव प्रदेश अर्थात् भारत से ही लोग कृषि अथवा उस युग की उन्नत संस्कृति लेकर सब जगह गये। परंतु विश्व में मनुष्यों के फैलाव की दो मान्यतायें मैं प्रस्तुत करना चाहूँगा। पहली ग्लैसिएशन (जलप्लावन) युम में पानी में न रहने वाले जीव-जन्तु ऊंचे स्थान पर रहना चाहिए और यह परिकल्पना कि विश्व का सबसे ऊँचा स्थान तिब्बत ही है। अतः वहीं से मानव के फैलाव को समझना चाहिए। दूसरे जो स्थान सबसे पहले सूखा होगा, वहीं जीव-जन्तु पहले पैदा हुए होंगे। ऐसा स्थान अफ्रीका माना जाता है। मानव शास्त्र तथा अन्य अध्ययनों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य मानव के पूर्वज, उनकी जो भी अवस्था रही हो, वह अफ्रीका से ही आये हैं। पूरे विश्व में ऐसा ही हुआ है। खैर….
वैसे भी संस्कृति कोई सपाट, एक परत वाली वस्तु नहीं है। हजारों लाखों वर्षों में एक के ऊपर एक परत जमी है उद्विकास और प्रगति की राह में और यही संस्कृति है, जो आज दिखती है। उसको केवल एक प्रकार की दृष्टि, एक प्रकार के तथ्यों तथा एकरूपता के चौखटे से नहीं देखा, आंका जा सकता है जैसा कि इस देश की प्रभु जातियों ने आज तक किया है और इसलिए भी डॉ. निर्मोही की यह कृति विशेष महत्त्व रखती है कि इन्होंने उसे नयी दृष्टि से देखने का प्रयास किया है।पुस्तक में लेखक ने सैकड़ों अपनी नवीन प्रस्थापनाओं को तथ्य एवं तर्कों से उकेरा है। आपने मेढक को मानव सहित समस्त दो पाया, चौपाया जीवों के आदि पूर्वज के रूप में जो घोषणा की है वह अपने आप में एक आश्चर्य है, जिसका परीक्षण होना अभी शेष है। ऐसे ही कुछ अन्य प्रस्थापनाएँ लेखक की अपनी निजी हो सकती हैं। उन पर मुझे कुछ नहीं कहना है। यह तो विद्वानों, वैज्ञानिकों के ऊपर निर्भर करता है कि वे उनका अपने ढंग से मूल्यांकन करें और उत्तर दें।
पुस्तक को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ. निर्मोही ने अपनी तरफ से नया कुछ नहीं किया है, इन्होंने तो मात्र विश्व की सांस्कृतिक विरासत में उपलब्ध मनु से संबंधित तथ्यों का उपयोग किया है। यह सच है कि तथ्यों के बीच वैज्ञानिक और तार्किक विश्लेषण कर नयी-नयी प्रस्थापनाएँ देने की लेखक की अपनी अद्भुद क्षमता है। लेखक ने अपनी इस कृति में जो निष्कर्ष और प्रस्थापनाएँ दी हैं, वे इतने तार्किक, तथ्यपूर्ण और सटीक लगते है कि कोई भी उन्हें स्वीकार किए बिना नहीं रह सकता। बहुत लोग ऐसे होंगे जो लेखक की प्रस्थापनाओं पर उंगली तो उठायेंगे, परंतु उनके विपरीत तथ्य और तर्क शायद जमा न कर पाएँ। मेरा मानना है कि सच को और अधिक ऊँचाई प्रदान करने के लिए फिर भी विद्वानों को यह कार्य करना होगा और लेखक को भी उनकी चुनौती स्वीकार करनी होगी। मैं भी यह नहीं कह सकता कि लेखक के निष्कर्ष अंतिम और सार्वभौम हैं। यह तो विद्वानों के ऊपर निर्भर करता है कि वे उनका वैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन करें।
समाज में कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिन्हें डॉ. निर्मोही का यह प्रयास प्रस्थापित मान्यताओं के विरुद्ध प्रतिगामी दिखायी देगा, परंतु “वादे-वादे जायते तत्व बोधः” की प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार डॉ. निर्मोही के इस प्रयास को ज्ञान की दिशा में एक नया कदम तो माना ही जाना चाहिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस पर एक लंबी बहस छिड़ेगी, जिससे और पर्तें भी ऊधड़ेंगी और विगत को समझने में आसानी होगी । कुछ भी हो डॉ. श्याम लाल सिंह देव ‘निर्मोही’ की यह कृति समाज वैज्ञानिकों, इतिहास के अध्येताओं, भारत क्या विश्व समाज के शोधार्थियों, राजशास्त्रियों और अपने अतीत के बारे में जिज्ञासु व्यक्तियों, यहाँ तक कि आम जनता के लिए भी बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। यह कृति जहाँ मनु और मानव समाज से संबंधित नयी प्रस्थापनाएँ प्रस्तुत करने में सक्षम है, वहीं पर यह शोध के लिए नयी संभावनाओं की खिड़की भी खोलती है। वास्तव में यह अपने ढंग का अनूठा प्रयास है। इसके लिए डॉ. निर्मोही साधुवाद के पात्र हैं।
प्रो. राजेश्वर प्रसाद
डॉ.बी.आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर प्रोफेसर
आगरा
डिपार्टमेण्ट आफ कन्टेम्पोरेरी
दीपावली, 19 अक्टूबर, 1998
सोशल स्टडीज एण्ड लॉ
“Manu was a mother of human kind”… Firstly I’m surprised to know this.
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