उत्सवों का समाजशास्त्र
Social Science of Festivals
Table of Contents
- पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु
- होली क्यों मनाई जाती है, होली की शुरुआत कब और कैसे हुई? (Why is Holi celebrated, when and how did Holi begin?)
- दीवाली का पर्व क्यों मनाया जाता है और इसका धन से क्या सम्बन्ध है ? (Why is the festival of Diwali celebrated and what is its relation to dhan/dhaan?)
- धन शब्द की उत्पत्ति क्या धान से ही हुई है, धान जो किसान अपने खेतों में उगाता है ?(Has the word ‘Dhan’ originated from ‘dhaan’, that the farmer grows in his fields?)
- क्या है रक्षाबंधन और इसकी शुरुआत कैसे हुई? (What is Rakshabandhan and how it got started?)
- विश्व का पहला प्रेम दिवस कौन सा है और क्यों मनाया जाता है ? (Which is the world’s first Valentines day and why is it celebrated?)
- देवस्थान एकादशी क्या है और क्यों मनायी जाती है ? (What is Devasthan Ekadashi and why is it celebrated?)
- लेखक की कलम से…
- प्राक्कथन – के. गोपाल, प्रोफेसर, समाजशास्त्र (अ. प्रा.), चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु
- ‘उत्सवों का समाजशास्त्र’ पुस्तक वास्तव में भारतीय उत्सवों की समाजवैज्ञानिक प्रस्तुति है । इसमें भारतीय उत्सवों को धार्मिक व्याख्या से हटकर कृषि प्रधान भारत में कृषि संदर्भों के साथ ही प्रकृति के बीच मानव जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा जैविकीय संदर्भों को वैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत किया गया है ।
- पुस्तक ‘होलिकोत्सव’ को हिंदुओं ही नहीं तो विश्व के समस्त मानवों का “पहला नव वर्षोत्सव” तथा “शीत रक्षा कवच” के रूप में प्रस्तुत करती है । इसके अनुसार होली पुराने वर्ष की विदाई और नए वर्ष के स्वागत का पर्व है । इसका संबंध आनंदोत्सव तथा मदनोत्सव से भी है । पुस्तक के अनुसार आदिम अवस्था में जबकि आदि मानव नंगे बदन जंगलों में गुफाओं में निवास करता था, जंगल में आग लगने के साथ होली का जन्म हुआ। पहले गुफा होली का जन्म हुआ। बाद में बस्ती बनने पर शीत से बचने के लिए वही गुफा होली प्रत्येक घर में अलावा (कौड़ा) के रूप में जलने लगी। अंत में जब शीत ऋतु बीत जाती है तो गांव भर की बड़ी होली जलाकर उसे विदा किया जाने लगा क्योंकि होली ने शीत से जीवन रक्षा की थी। अतः उसे होलिका माता कहा गया । अगली होली भी इसी होली की आग को घरों में सुरक्षित रखकर जलायी जाती रही। इस प्रकार करोड़ों वर्षों से वही होली की पवित्र आग अगली होली को जलाती रही । इसलिए अंग्रेजी में होली का अर्थ ही पवित्र हो गया । ऐसी होली को केवल हिंदुओं से जोड़ना होली का अपमान है।
- इसी प्रकार दीवाली पर्व विश्व का दूसरा उत्सव है । यह मकान के दीवालों की मरम्मत तथा धान रूपी धन के जन्मोत्सव का पर्व है । यह बरसात में पानी की बौछार तथा चूहों से खराब हो चुकी दीवारों की मरम्मत तथा धान / धन के संरक्षण के साथ ही अगली बरसात तक स्वास्थ्यवर्धक साफ-सुथरे घर में रहने की व्यवस्था का नाम है । इसे प्रकाशोत्सव तथा अच्छे-अच्छे पकवान खाने तथा नए वस्त्र धारण के रूप में भी देखा जा सकता है । इस उत्सव पर लक्ष्मी और गणेश की पूजा में धान आविष्कार्ती नारी लक्ष्मी (कृषिका लक्ष्मी) तथा विश्व के सबसे बड़े चूहामार गणेश को सम्मान देने का संदर्भ रखता है। गणेश के साथ ही लक्ष्मी का सहायक उल्लू भी विश्व का सबसे बड़ा चूहा मार है । इन दोनों का मुख्य संदर्भ खेती के शत्रु चूहों के विनाश से जुड़ा है। दीवाली से जुड़े शेष सन्दर्भों को भी बाद में जोड़ा गया ।
- रक्षाबंधन भाई बहन के स्नेह अथवा बहन के संरक्षण का पर्व बाद में बना । इसका प्रारंभ तो स्वर्ग लोक से भूखे नंगे के रूप में भारत में आए शरणागत सुरों / आर्यों के संरक्षण से हुआ । भारत नें सुरों / आर्यों / बाद के ब्राह्मणों को शरण देकर बसाया था । चूंकि शरणार्थी को मारा नहीं जाता, इसलिए शरणागत आर्यों / सुरों / ब्राह्मणों के संरक्षण के रूप में रक्षाबंधन का उत्सव शुरू हुआ । बाद में भाई द्वारा बहन के संरक्षण का संदर्भ भी उसके साथ जुड़ गया ।
इसी प्रकार देवस्थान एकादशी का पर्व वैष्णवों के भगवान विष्णु के बरसात के सबसे क्रियाशील चार महीने तक सोकर उठने अर्थ में “देवोत्थान एकादशी” न होकर “देवस्थान एकादशी” है । यह कुंवारीकन्या का विवाहोत्सव है । इसका संबंध अधिक मात्रा में मीठा रस और गुड़ एवं चीनी प्राप्त करने से है । जो दे उसे भारत में देव / देवता कहा जाता है । अतः बहुत कुछ देने के कारण ईख को भी देवता कहा गया । ऐसे ईख देवता की पूजा का संबंध देवस्थान एकादशी पर्व से है । कूर्मावतार अर्थात सर्वश्रेष्ठ कुर्मी / किसान विष्णु को खेती के मौसम में बरसात के चार महीने तक सोने वाला दिखाना भारतीय कृषि संस्कृति के विरुद्ध अपराध है।
महाशिवरात्रि उत्सव “विश्व का पहला प्रेम दिवस” है । इसमें शिवलिंग पूजा वास्तव में मानवों के सृजन एवं सेक्स यंत्र लिंग (स्त्रीलिंग एवं पुलिंग) को स्वस्थ एवं क्रियाशील बनाए रखने से जुड़ी है । इसका संबंध धार्मिक काम, मनोवैज्ञानिक जैवकीय सेक्स तथा समाजवैज्ञानिक पक्षों से अधिक है।
अक्षय तृतीया उत्सव वास्तव में हलोत्सव या खेती के प्रारंभ से जुड़ा है। इस दिन की जाने वाली जुताई अक्षय अन्न के उत्पादन से संबंध रखती है।
इसी प्रकार पोंगल या खिचड़ी पर्व राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकीकरण से संबंध रखता हैं तो ओणम विश्व विजेता महाराज बलि के सम्मान से जुड़ा है और असम का बिहू उत्सव नए वर्ष के स्वागत का उत्सव है ।
कुल मिलाकर भारतीय उत्सवों के विज्ञान को सामने लाने का यह अनूठा प्रयास है ।
लेखक की कलम से...
अपनी पी-एच. डी. उपाधि के लिए मैं शोध कार्य कर रहा था तो मैं भारतीय उत्सवों के कृषि प्रधान भारत में भारत की प्रमुख कृषक जाति अथवा कुर्मी कृषकों के साथ क्या सम्बन्ध है? यह जानने के लिए जब मैंने भारत के प्रमुख उत्सवों का विश्लेषण करना शुरू किया तो मुझे उत्सवों से जुड़े एक वैज्ञानिक सत्य का साक्षात्कार हुआ। इसके लिए मैंने उत्सव सम्बन्धी साहित्य का अध्ययन किया, परन्तु सन्तोष न हुआ तो मैंने सहभागी अवलोकन द्वारा उत्सवों को बारीकी से देखा और बड़े-बूढ़े लोगों से जानकारी भी प्राप्त की और जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ, ‘उसी ने उसने उत्सवों का समाज शास्त्र‘ की नींव रख दी। इसी शोध प्रक्रिया का प्रतिफल है ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ यह ग्रन्थ।
अभी तक भारतीय संस्कृति के अन्य पक्षों की तरह भारतीय उत्सवों को भी धार्मिक दृष्टि से देखा जाता था। भारतीय संस्कृति के परम्परागत व्याख्याता ब्राह्मण जैसे लेखक,वक्ता जिस प्रकार संस्कृति की आध्यात्मिक तथा धार्मिक व्याख्या करते रहे हैं, वैसे ही ऐसे लोग भारतीय उत्सवों की व्याख्या भी धार्मिक आधार पर करते रहे हैं। हमने देखा कि भारत की आधारशिला कृषि पर आधारित रही है और आज भी भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसका यह स्वरूप हजारों साल से ऐसा बना हुआ है। मुझे लगा कि भारतीय संस्कृति सहित उत्सवों आदि का कृषि से गहरा सम्बन्ध होना चाहिए। अतः मैं इसकी खोज में लग गया तो उत्सवों के क्रैषिक सन्दर्भों का पता चला। इससे यह भी पता चला कि भारतीय उत्सव मुख्य रूप से कृषि पर्व हैं, जिन्हें बाद में आध्यात्मिक या धार्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। धार्मिकों ने बाद में धार्मिक आख्यान जोड़कर उत्सवों को धार्मिक स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की। परन्तु उत्सवों के साथ जुड़े विविध कर्मकाण्डों, प्रतीकों, उपकरणों, विधियों इत्यादि ने उत्सवों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक जैसे समस्त पक्षों को उजागर कर दिया, जिससे यह “उत्सवों का समाज शास्त्र” नामक ग्रन्थ अस्तित्व में आ गया।
उत्सवों के विश्लेषण में व्यावहारिक धरातल पर मैंने अपनी आंखों से जो प्रत्यक्ष भाग लेकर देखा, उसे ही विशेष महत्व दिया गया है। इतना ही नहीं मैंने उत्सवों के कर्मकाण्डों, उपकरणों, प्रतीकों इत्यादि के निहितार्थों को विशेष रूप से तलाशने की कोशिश की तो धार्मिकता का आवरण हटता गया और उत्सवों का क्रैषिक तथा समाज वैज्ञानिक स्वरूप सामने आता गया। इतना ही नहीं हमने पाया कि उत्सव प्रकृति के साथ भी मेल बैठाये हुए हैं। कारण- अधिकतर उत्सव राशियों, ग्रहों, मौसमों की सन्धि बेला में मनाये जाते हैं। ऐसे समय में कृषकों की फसलें भी पककर तैयार हो जाती हैं। इस प्रकार उत्सव न केवल कृषि पर्व है, वरन् प्रकृति पर्व भी हैं। ऐसा वैज्ञानिक स्वरूप विश्व में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।
हमने अपने अध्ययन में पाया कि होली उत्सव विश्व का प्राचीनतम उत्सव है, जिसका जन्म आदिम अवस्था में हुआ था, जबकि आदि मानव गिरि कन्दराओं/गुफाओं में निवास कर रहा था। उसके तन पर कपड़े भी न थे। तब इसी होली ने भयंकर शीत से उसकी रक्षा की थी। इसलिए होली मानव के लिए मां बन गयी। हमने देखा कि शीत ऋतु में नित्य जलने वाली होली मां का विदायी समारोह है होलिकोत्सव। यह पुराने वर्ष की विदायी तथा नये वर्ष के स्वागत का कृषि पर्व भी है। विश्व का पहला पर्व होने से हमने इसके विविध पक्षों की गहराई के साथ खोज की है और समय के साथ जड़ने वाले तथ्यों का भी परीक्षण किया है। इसके साथ ही इसकी उपयोगिता के कारण विश्व के अनेक राष्ट्रों में इसके फैलाव को भी रेखांकित किया है।
मेरी खोज में यह भी पता चला कि दीपावली विश्व का दूसरा प्राचीनतम पर्व है, जबकि मानव ने धान की खेती शुरू की और घर बनाकर रहना शुरू किया था। वास्तव में दीवाली वर्षात के कारण विकृत हो गये घरों अथवा वारों की मरम्मत तथा धान रूपी धन के जन्मोत्सव का पर्व है। शेष सन्दर्भ भी दीपावली को कृषि पर्व ही सिद्ध करते हैं। मैं जितना ही इन दोनों पर्वों की गहराई में पहुंचता गया, इनका विज्ञान मेरी आंखों के सामने आता गया। मैंने पाया कि विविध धार्मिक सन्दर्भ धार्मिकों तथा भगवान को प्रस्थापित करने के लिए प्राचीन काल से चले आ रहे इन दोनों उत्सवों के साथ धार्मिकों द्वारा बाद में जोड़े गये। मेरे विश्लेषण से ऐसे लोगों को कष्ट हो सकता है, परन्तु सच को तो आना ही पड़ेगा अन्यथा विज्ञान के युग में भारतीय चिन्तन को कौन पूछेगा। वास्तव में होली तथा दीपावली ऐसे पर्व हैं, जिन्हें राष्ट्रीय क्या विश्व पर्व घोषित करना चाहिए।
हमने पाया कि रक्षाबन्धन आर्यों को शरण देने का इतिहास अपने भीतर समेटे हुए है।1 बाद में उसे भाई-बहन के स्नेह-पर्व का स्वरूप भी प्राप्त हो गया। इसी क्रम में मुझे महाशिवरात्रि अथवा शिव लिंग पूजा के वैज्ञानिक, जैवकीय, मनोवैज्ञानिक तथा समाजवैज्ञानिक स्वरूप का पता चला, जिसका चित्रण मैंने विज्ञान की आंखों से वैज्ञानिक शब्दावली में किया है। सम्भव है मेरे इस विश्लेषण से किसी को कुछ विचित्र लगे, परन्तु वैज्ञानिक समाज शास्त्र की आधारशिला लिए भारतीय समाजशास्त्र की दृष्टि से ‘उत्सवों के समाजशास्त्र‘ के लिए यथार्थ चित्रण को करना समय की मांग थी। फिर भी यदि किसी की आस्था को ठेस लगती है, तो इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। आशा करता हूँ कि भारतीय समाजशास्त्र की प्रस्थापना के लिए वे मेरा साथ देंगे।
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1. आर्य भारत में विजेता नहीं शरणार्थी बनकर आये, को देखने के लिए देख लेखक डॉ. निर्मोही की
कृति ‘ऋग्वैदिक असुर और आर्य‘, राधा पब्लिकेशन्स दरियागंज, नयी दिल्ली 2007.
इसी प्रकार भारत के अन्य प्रमुख उत्सवों, जैसे- नाग पंचमी, दुर्गा पूजा, विजय दशमी, पोगंल या खिचड़ी, ओणम, विहू, अक्षय तृतीया तथा देवोत्थान एकादशी जैसे पर्वों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। देवोत्थान एकादशी के रूप में मान्य पर्व का रहस्य मैं नहीं समझ पाया था कि कृषि प्रधान भारत में वर्षात के चार महीने भारत के देवता के सोने और देवोत्थान एकादशी (वर्षात के चार माह बीतने पर) के दिन उसके जगने /उठने का क्या अर्थ है। ऐसा कर धार्मिकों ने अपने देवता को छ: महीने सोने वाले कुम्भकरण का छोटा भाई बना दिया था। यह प्रश्न मेरे दिमाग में बार बार उठता था कि 110 वर्षीय मेरी बुआ ने आज से 40 वर्ष पहले उत्तर देकर मेरे मन को शान्त कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह देवथान एकादशी भगवान के सोकर उठने का दिन नहीं है। यह पर्व तो ईख का विवाहोत्सव है। जब हमने देवोत्थान एकादशी पूजा या उत्सव की सम्पूर्ण क्रिया-विधि का प्रत्यक्ष अवलोकन किया तो बूआश्री की बतायी बात सत्य सिद्ध हुई। तब मुझे लगा कि अनपढ़ काया में इतना बड़ा विज्ञान छिपा था। तब मुझे संस्कृतज्ञों के विश्लेषण पर दया भी आयी। आज जब मैं बूआश्री के चिन्तन को पुस्तक में स्थान दे रहा हूं तो उनकी स्मृति ताजी हो उठती है। अतः मैं सर्व प्रथम अमर बूआश्री के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हुआ उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूं। अब मैं अपने शुभ चिन्तकों के प्रति आभार व्यक्त करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। मैं सर्व प्रथम अपने हजारों मित्रों, जिनमें समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीति विज्ञानी, राजनेता, भाषाशास्त्री, भूगोलवेत्ता, इतिहासज्ञ, धर्मशास्त्री, प्राकृतिक विज्ञानी, इत्यादि सम्मिलित हैं, के प्रति एक साथ सामूहिक रूप से आभार व्यक्त करता हूं, जो सदैव मेरे नये विचारों के लिए मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहते हैं।

प्राक्कथन
के. गोपाल
प्रोफेसर, समाजशास्त्र (अ. प्रा.)
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय
मेरठ
दि. 20 मई 2008
उत्सवों का प्रत्येक समाज में विशिष्ट स्थान होता है। व्यक्तिगत स्तर पर ‘उत्सव‘ व्यक्ति को अपने वृहत समाज से जोड़ते हैं। प्रत्येक समाज आदिम, ग्रामीण, नगरीय में – प्राय धार्मिक एवं सांस्कृतिक आधार पर कुछ-न-कुछ वैयक्तिक उत्सव बच्चों को अपने धर्म एवं संस्कृति को अंगीकृत करने के लिए किए जाते हैं, जैसे- सनातन धर्मियों में उपनयन, मुसलमानों में अफीका, ईसाइयों में वपतिस्मा इत्यादि। सामूहिक रूप में उत्सव एक धार्मिक अथवा सामाजिक समूह के सभी लोगों को एक साथ लाने का कार्य करते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप में उत्सव आमोद-प्रमोद को महत्व देकर आनन्दोत्सव का रूप ले लेते हैं और इस प्रकार वे नीरस जीवन में रस घोलने का कार्य करते हैं। यदि मानव इतिहास का अध्ययन किया जाय तो सम्पूर्ण मानव समाज आदिम स्तर से ही आज के स्तर तक आया है। यह ‘मानव‘ प्रकृति का एक ही साथ ‘सबसे निरीह‘ और ‘सबसे शक्तिशाली‘ प्राणी हैं। निरीह इसलिए कि मानव शिशु को जीवित रहने के लिए समाज की आवश्यकता होती है। इसीलिए अविकसित से अतिविकसित स्तर तक का मानव ‘समूह‘ में रहता आया है। मानव समूह और उसकी संस्थाएं विभिन्न स्तरों पर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। मानव प्रकृति का सबसे शक्तिशाली प्राणी भी इसलिए है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के बल पर प्रकृति की चुनौतियों का सामना करते हुए उनका हल खोज लेता है। उत्सव मानव की इन्हीं आदिम और विकसित अवस्थाओं के मिले-जले रूप हैं। इसमें समाज के इतिहास को खोजा जा सकता है।
समाज शास्त्र का क्षेत्र इतना वृहद एवं विस्तृत है कि यह समाज के किसी भी पक्ष में रुचि ले सकता है। समाजशास्त्रियों के लिए ‘समाजों‘ का सूक्ष्म अध्ययन सदा से रुचिकर रहा है। निश्चय ही किसी भी संवेदनशील, जिज्ञासु समाजशास्त्री के लिए अपने समाज को समीप से जानने की लालसा शोध के लिए प्रेरित करती है। समाजों के अध्ययन में जीवन के विभिन्न क्रिया-कलापों में उत्सवों का भी अपना स्थान होता है। 1956 में मैंने अबे डुबोय की पुस्तक ‘हिन्दू मैनर्स कस्टम्स एण्ड सेरिमनीज‘ पढ़ी। इस पुस्तक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरे मन में जहां एक ओर किसी समाज विशेष को विस्तार से जानने की इच्छा बलवती हुई, वहीं समाज विशेष में परिवर्तनीय और गतिशील समाज के बहुआयामी सन्दर्भों में होने वाले बदलाव को भी जानने-समझने की जिज्ञासा कुलांचे भरती रही। 1977 में इसी प्रेरणावश मैंने ‘मध्यम वर्गीय शिक्षक समुदाय‘ पर अध्ययन किया। ‘दि रिलीजन आफ मिडिल क्लास‘ नामक यह अध्ययन मेरठ के महाविद्यालयीय एवं विश्वविद्यालयीय शिक्षकों पर आधारित एक अध्ययन है। इसमें उत्सवों/पर्वों पर भी एक अध्याय है (पृ. 46-52)। अक्टूबर 2005 में स्वामी नारायण सम्प्रदाय के साधू मुकुन्द चरन दास ने ‘हिन्दू फेस्टिवल-ओरिजिन, सेन्टीमेन्ट्स एण्ड रिचुअल्स‘ नाम की पुस्तक लिखी है, जिसमें सनातन हिन्दू धर्म के 28 पर्वों, 9 बापस पर्वों (बोचासनवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामी नारायण संस्था (BAPS) ) तथा 12 मेगा पर्वों, (जिसके सम्प्रदाय भारत एवं विदेशों में हैं) का विशद वर्णन है। इसी प्रकार एक पुस्तक प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के 1997 में जगदीश चन्द्र हसीजा ने ‘भारत के त्योहारों की आध्यात्मिक व्याख्या‘ नाम से लिखी है। इसमें उत्सवों को अध्यात्मिक/धार्मिक आधार पर प्रस्तुत किया गया है। अब तक की प्राप्त पुस्तकों में उत्सवों को आध्यात्मिक तथा धार्मिक आधार पर ही प्रस्तुत किया गया है। इनमें उत्सवों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जैसे पक्षों की उपेक्षा देखने को मिलती है।
यह सच है कि भारत विभिन्न जातियों, प्रजातियों, वर्णों, धर्मों, मतमतान्तरों वाला देश है। स्वभावतः इन समुदायों के अपने-अपने उत्सव भी हैं। वर्ष का प्रारम्भ भी इनके अपने-अपने हैं। 1952 में मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में बनी समिति ने भारत में 30 से अधिक प्रचलित कलेन्डर माने हैं। व्हिटाकर्स अलमांक ने इन्हें मुख्य सात कालों में बांटा है, जिनके अनुसार वर्ष 2000 ई. को निम्न प्रकार से गिना जाता है–
- वर्ष 6001 कलियुग काल
- वर्ष 2544 बुद्ध निर्वाण काल
- वर्ष 2057 विक्रम सम्वत्
- वर्ष 1922 शक सम्वत्
- वर्ष 1921 वेदग्र ज्योतिष काल
- वर्ष 1407 बंगाली सन्
- वर्ष 1176 कोलम काल
इसके अतिरिक्त जैन इस्लामी हिजरी, पारसी, जोडाइक, भी हैं। 1 स्पष्ट है कि विभिन्न काल गणनाओं को मानने वाले वर्ष का आरम्भ भी उनके अनुसार ही होंगे। स्वाभाविक है कि उनके उत्सव एवं पर्व भी अपने हिसाब से ही होंगे। यह हम सब जानते है कि विभिन्न राज्यों के वर्ष का आरम्भ अलग-अलग होता है। ऐसी स्थिति में ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ लिखना बड़े जीवट का काम है। जो डॉ. निर्मोही जैसा व्यक्ति ही कर सकता है। वास्तव में सम्पूर्ण भारत के लिए ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ रचित करना किसी एक व्यक्ति के वश का नहीं है। इसके लिए तो सामूहिक प्रयास करना होगा। डॉ. निर्मोही का यह प्रयास हिन्दुओं के प्रमुख उत्सवों तक सीमित है।तथाकथित हिन्दू समाज जातियों, उपजातियों के साथ ही चार वर्षों के स्तरीकरण में विभाजित है। हिन्दुओं के अति प्रमुख पर्वों में रक्षाबन्धन, विजय दशमी, दीपावली तथा होली माने जाते हैं। यद्यपि सभी हिन्दू इन उत्सवों को मनाते हैं तथापि इन उत्सवों को चार वर्णों में बांधने की कोशिश दिखायी देती है। धार्मिक ग्रन्थों में रक्षाबन्धन को ब्राह्मणों का, विजय दशमी को क्षत्रियों का, दीपावली को वैश्यों का तथा होली को शूद्रों का पर्व कहकर प्रस्तुत किया गया है। यह उत्सवों का एकांकी चित्रण है। यह सच है कि इन उत्सवों के साथ विभिन्न जातियों, धर्मों, समुदायों, के अपने सन्दर्भ भी जुड़ते गये हैं। जैसे दीपावली के भैय्या द्विज के दिन जब लड़कियां भाइयों को पकवान, मिठाई आदि खिलाती हैं तो उसी दिन कायस्थ जाति के परिवारों में चित्रगुप्त महाराज की पूजा की जाती है। चित्रगुप्त कायस्थों के पूर्वज और मृत्यु देवता यम के लिपिक माने गये हैं। इसी प्रकार राम, काली, प्रह्लाद, महावीर, बली इत्यादि के सन्दर्भ भी उत्सवों के साथ जुड़े हैं। आदिम समाज के इतिहास एवं विकास का अवलोकन यह दर्शाता है कि आदिम सोच में आत्मावाद, जीववाद, प्रकृतिवाद इत्यादि थे। प्रारम्भिक मानव की प्रमुख समस्या प्रकृति ही तो थी। सूर्य, चन्द्रमा, आग, पानी, आकाश, नदी, पहाड़, आंधी, तूफान, बिजली, बाढ़, विशालकाय जीव, वृक्ष इत्यादि सभी से वह डरता था। अतः वे सभी उसके लिए पूज्य हो गये। पुरुषों में श्रेष्ठतम योगदान करने वाले ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु, शिव, वरुण, गणेश और बाद में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद तथा नारियों में माता मनु, लक्ष्मी, दुर्गा, काली इत्यादि सभी का उसने अभिनन्दन किया। हिन्दुओं ने ऐसे अपने देवों/महामानवों (पूर्वजों) की पूजा को अपने उत्सवों से जोड़ दिया। इस प्रकार उत्सवों को धार्मिक स्वरूप प्राप्त होता चला गया।
……….
1. अमर्त्यसेन, आरगूमेन्टेटिव इण्डियन, पृ. 321-22.
डॉ. श्याम लाल सिंह देव निर्मोही द्वारा लिखित ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ हिन्दू उत्सवों का समाजशास्त्रीय विवेचन हैं। आप का प्रयास उत्सवों को धार्मिकता की कूप-मण्डूकता से मुक्ति दिलाकर उन्हें उनके वैज्ञानिक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखने का है। यह प्रयास प्रशंसनीय है, विशेष रूप से वर्तमान सन्दर्भ में। पिछले तीन दशकों से भारतवर्ष में सभी कुछ राजनीतिक होता जा रहा है। जब से केन्द्रीय सरकार की पकड़ ढ़ीली हुई है कट्टरपन्थी धार्मिक राजनीति उभर रही है। मण्डल, कमण्डल, रथयात्रा, मंदिर, मस्जिद ने 80 और 90 के दशक में सभी कुछ गौड़ बना दिया। राजनीति लोकतंत्र के स्थान पर भीडतंत्र बनकर रह गयी है। बहुसंख्या पीड़ित भारत के बेरोजगार युवकों को धार्मिक उन्मादग्रस्त करके इतिहास की पुनर्रचना का प्रयास किया जाने लगा। सहनशील, मुक्त विचारवान, संवेदनशील, उदार हिन्दू समाज को अति कट्टर समूह के रूप में बदलने के प्रयास तीव्र हो गये। धर्म को राजनीति की कटार बनाया गया। ऐसा हो भी क्यों न, जब संख्या बल पर एक धर्म के अनुयायी 400 वर्षों से भी अधिक पुरानी इमारत ढहा रहे हों और सम्पूर्ण सरकारी तंत्र श्रीहीन शिखण्डी की तरह मूक दर्शक बना रहे। राजनेता, राजसत्ता एवं शक्ति क्या संदेश दे रही थी? सत्ता अब लगता है। नंपुन्सक बन गयी है और समाज असामाजिक अराजक तत्वों के हवाले है।
ऐसे माहौल में डॉ. निर्मोही जी ‘उत्सवों का समाजशास्त्र‘ के माध्यम से समाज को धार्मिक मदान्धता से हटाकर वैज्ञानिक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में जीवन को देखने का सन्देश देना चाहते हैं। इसमें वे सफल भी हुए हैं। उन्होंने उत्सवों के विश्लेषण में जो वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किये है, उन्हें नकारा नहीं जा सकता है।
उत्सव किसी भी समाज के जीवन में हमेशा रहेंगे। इन्हीं उत्सवों को वैज्ञानिक, सामाजिक परिवेश देना होगा। डा. निर्मोही ने यही प्रयास किया है। आप ने प्राचीन हिन्दू उत्सवों को नये तथा वैज्ञानिक कलेवर में प्रस्तुत कर सराहनीय कार्य किया है। डॉ. निर्मोही जी की उत्सवों को देखने परखने की समाजशास्त्रीय दृष्टि सभी समाज वैज्ञानिकों के लिए रोचक तो होगी ही, भविष्य में सभी समाजों में उत्सवों के अध्ययन के लिए मार्गदर्शक भी बनेगी। ऐसी मेरी धारणा एवं विश्वास है। समाजशास्त्रीय जगत् में अपने शोध पत्रों तथा पुस्तकों के माध्यम से नयी-नयी प्रस्थापनाएं देने में सक्षम डॉ. निर्मोही ने भारतीय उत्सवों का जिस रूप में विश्लेषण प्रस्तुत किया है उससे स्पष्ट होता है कि उत्सवों के पीछे वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। आपने होली उत्सव को जिस रूप में विश्व के प्रथम और पवित्रतम उत्सव की संज्ञा देकर उसके वैज्ञानिक पक्षों का विश्लेषण किया है, उससे धार्मिकों अथवा पौराणिकों की कहानी पूर्णतः असत्य प्रतीत होती हुई दिखायी देती है। आप की यह प्रस्तुति कि होली उत्सव ही भारतीय नव- वर्षोत्सव भी है। यह विश्व में नववर्षोत्सव मनाने का प्राचीनतम उदाहरण है। हम सब भारतीयों के लिए गर्व की बात है। डॉ. निर्मोही की यह प्रस्तुति कि दीपावली विश्व का दूसरा प्राचीनतम पर्व है और यह धन रूपी धान के जन्मोत्सव तथा दीवारों की मरम्मत से जुड़ा पर्व है। सरायहनीय ही नहीं तो विचारणीय भी है। आपने दीवाली को भौतिक सन्दर्भो विशेषकर धान (धन) से जोड़कर भौतिकवाद अथवा महर्षि चार्वाक की आलोचना करने वालों को चुनौती दी है। आपके अनुसार दीवाली पर लक्ष्मी की पूजा से किसी का घर धन से भरने वाला नहीं है, इसके लिए तो उद्योग जरूरी हैं। देवधान एकादशी उत्सव के सम्बन्ध में आप का यह निष्कर्ष विचारणीय है कि यह उत्सव भगवान के चार महीने सोकर उठने (देवोत्थान) से जुड़ा न होकर ईख (गन्ना) का विवाहोत्सव है। ईख इस समय तक मीठे रस से परिपूर्ण हो चुकी होती है। अतः इसके बाद ही इसका उपभोग किया जाय। इसके लिए यह उत्सव रखा गया, इस पर रूढ़िवादी धार्मिकों को आपत्ति हो सकती है, परन्तु जो तथ्य और चित्र डॉ. निर्मोही ने पूर्वांचल के गांवों के दिए है, उसे कोई भी नकार नहीं सकता है। डॉ. निर्मोही का यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि कृषकों के देश भारत में वर्षात के चार महीने (खेती के लिए सबसे उपयोगी महीने) तक देवता के सोते रहने से तो राष्ट्र भूखों मर जायेगा।
महाशिवरात्रि पर्व से जुड़े ‘काम सन्दर्भो‘ की व्याख्या ने तो मानो आज के आधुनिक युग में एड्स तथा नपुंसकता के दंस को झेल रहे मानव समाज के लिए अमृत संजीवनी प्रदान की है। आप की यह घोषणा कि वैज्ञानिक आधारों पर आधारित महाशिवरात्रि का दिन ही विश्व का पहला प्रेम दिवस है। पाश्चात्य जगत् का बेलेन्टाइन डे तो इस के सामने बौना है। निश्चय ही विचारणीय तथा अनुकरणीय है। इसी प्रकार विजय दशमी, नागपंचमी, रक्षाबन्धन, मकर संक्रान्ति, पोंगल, विहु, करवा चौथ, ओणम, अक्षय तृतीया जैसे उत्सवों की वैज्ञानिक व्याख्या ने उत्सवों की सच्चाई को सामने लाने का कार्य किया है। डॉ. निर्मोही की उत्सवों की वैज्ञानिक व्याख्या के बाद तो ऐसा लगने लगा है कि भारतीय समाज एवं संस्कृति, उसके इतिहास, चिन्तन, राजनीति इत्यादि को धार्मिक आवरण से हटाकर उसे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, ऋषिक जैसे सन्दर्भो में देखने की जरूरत हैं। वास्तव में डॉ. निर्मोही ने भारतीय उत्सवों के जन्मदाता के रूप में भारतीय समाज के उपेक्षित, शोषित, पीड़ित अन्नदाता कृषकों को सामने लाकर इतिहास लेखन को नयी दृष्टि प्रदान की है। यह सच है कि डॉ. निर्मोही ने उत्सवों के वैज्ञानिक पक्षों को सामने लाने का सराहनीय कार्य किया है, परन्तु आप द्वारा प्रस्तुत यथार्थ नग्न सत्य पर नैतिकता के पक्षधर अंगुली तो उठा सकते हैं परन्तु उन्हें खण्डित करना उनके भी वश में नहीं होगा। ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ एवं अपनी अन्य कृतियों-जिनमें आदिमाता मनु और मानुषीकरण, प्राचीन विश्व का एक वैज्ञानिक अध्ययन (1999), ऋग्वैदिक असुर और आर्य (2007), लक्ष्मी गणेश का आर्थिक समाजशास्त्र 2008 द्वारा ‘निर्मोही जी‘ जहां एक ओर अपने समाजशास्त्रीय ऋण-समाज शास्त्र के शिक्षक के नाते विषय में योगदान-से मुक्त हो रहे हैं, वहीं अपने सहकर्मियों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत एवं मार्गदर्शक की भूमिका का भी निर्वाह कर रहे हैं। ऐसी रचनाओं पर विचार वैभिन्न होता ही है और होगा भी। सभी को अपना मत, अपनी दृष्टि रखने का पूरा अधिकार है लेकिन किसी को भी किसी पर अपनी सोच थोपने का अधिकार नहीं है और यही है सोच, अभिव्यक्ति एवं लेखन की स्वतंत्रता, जो हमें भारतीय संविधान ने दी हैं। स्वयं निर्मोही जी ने अपनी कलम से‘ में यह माना है कि जो कुछ भी लिखा गया है उसमें किसी की भावनाओं को किसी भी प्रकार की ठेस पहुंचाने का उद्देश्य नहीं है, फिर भी यदि किसी को किसी भी वक्तव्य से पीड़ा पहुंचती है तो इसके लिए हमें खेद है।‘ कुछ भी हो डॉ. निर्मोही की यह कृति भी अन्य कृतियों की तरह समाज वैज्ञानिकों, शोधार्थियों, तथा भारतीय संस्कृति एवं इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। मेरे लिए यह अत्यन्त प्रसन्नता और सन्तोष का विषय है कि मेरे प्रिय मित्र, सहकर्मी डॉ. निर्मोही ने अपनी पुस्तक ‘उत्सवों का समाज शास्त्र‘ का प्राक्कथन लिखने के लिए मुझ से आग्रह किया। आप के इस आग्रह न मुझ जहाँ अन्दर तक झकझोरा वही गुदगुदाया भी। मैं आपके लिए दीर्घ स्वस्थ जीवन एवं सतत लेखन की कामना करता हूं। मेरा विश्वास है कि अभी भारतीय समाज शास्त्र आपसे बहुत कुछ लाभान्वित होगा।
होली नववर्षोत्सव
होली एक ऐसा उत्सव है जो भारत के कोने-कोने में बड़े ही उत्साह और धूमधाम से बनाया जाता है। यह प्रत्येक गांव तथा शहरों के प्रत्येक मुहल्लों में मनाया जाता है। इसके लिए ‘होली‘ की तैयारी कहीं-कहीं एक माह पहले बसन्त पंचमी के दिन से और कहीं-कहीं 10-15 दिन पहले शुरू हो जाती है। गांव और मुहल्लों के युवक घास, फूस, गन्ने की पतेल, लकड़ी एवं गोबर के उपले इत्यादि एकत्र कर उसे ढेर का रूप देकर ‘होली‘ बनाते हैं। वास्तव में लकड़ी आदि के इस ढेर को ही ‘होली‘ या ‘होलिका‘ कहा जाता है। अन्ततः वर्ष के अन्तिम दिन अर्थात् फाल्गुन शुक्ल पन्द्रह अर्थात् पूर्णिमा (पूर्णमाह) के दिन गांव नगर मुहल्ले के बच्चे, युवक, बूढ़े सभी एकत्र होकर इस ‘होली‘ में आग लगाते हैं और होली धू-धू कर जलने लगती है। होली की ऊँची-ऊँची लपटें दूर से ही दिखायी देती हैं। लोग इस जलती होली के चारों तरफ खड़े होकर होली की गर्मी का आनन्द लेते हैं। होली में आग लगाने से पहले युवक विविध प्रकार के अग्नि के करतब दिखाते हैं। 8-10 फीट के डंडे के दोनों सिरों में कपड़ा बांधकर उसे मिट्टी के तेल से भिगोकर आग लगाकर अग्नि के चक्र जैसे करतब देखने लायक होते हैं। युवक सर्कस की तरह अग्नि के गोले में से कूद कर सकुशल निकलने का खेल भी दिखाते हैं। अन्त में प्रज्वलित अग्नि लेकर होली की प्रदक्षिणा करते हुए और होलिका माता की जय बोलते हुए होली में आग लगा दी जाती है।
होली जलाते समय प्रत्येक परिवार से लोग नवान्न अर्थात्, जौ, चना, बर्र लेकर जाते हैं और जलती होली में उसकी आहुति डालते हैं। जिसे कहीं-कहीं आखत डालना कहते हैं। इसे ही शस्येष्टि यज्ञ कहा गया है। विशेषकर नये जौ के दानों को होली में डालना शुभ माना जाता है। शायद भारतीय मानवों का प्रथम उत्पाद होने से इसे विशेष महत्व प्राप्त है। इसलिए भारतीय अपने प्रथम उत्पाद को अपने रक्षक होलिका माता को भेट करते हैं। यह नवान्न कहीं-कहीं होली जलाते समय ही डाला जाता है तो कहीं-कहीं बाद में एकत्र होकर होली की लपटों के कम होने पर डालते हैं। जहां बाद में एकत्र होकर होली के ठंडा होने पर आखत डालते हैं वहां होली थोड़े-से लोग ही रात में जला देते हैं। ऐसे स्थानों पर लोग जलती होली का आनन्द नहीं ले पाते हैं। और न ही होलिका माता की विदाई में भाग ले पाते है। सच तो यह है कि होली जलाने का समय वह होता है जबकि सूर्यास्त होकर शीत के आगमन का समय होता है अर्थात् 8 से 10 बजे के बीच होली जलाना चाहिए। यह वह समय होता है जबकि गांव, नगर के सभी बच्चे, युवक, बूढ़े, स्त्रियाँ, जगे होते हैं और होली के पास एकत्र होकर जलती होली का आनन्द ले सकते हैं। आहुति भी यज्ञाग्नि (होली की जलती आग) में ही डालना शुभ होता है। अर्द्ध-बुझी होली या शान्त होली यज्ञ की रूप नहीं होती। अतः जलाते समय ही नवान्न की आहुति डालनी चाहिए। महिलायें इस जलायी गयी होली की आग (जिसे घर का कोई सदस्य लाता है) से घर के पास होली जलाती हैं, और उसकी पूजा करती हैं। होली जलाते समय विस्फोटक आवाज पैदा की जाती है। इसके लिए विशेषकर गन्ने को गरम कर उसे पटककर आवाज पैदा की जाती है। यह आवाज बन्दूक की गोली या पटाखे की तरह होती है। जहां गन्ना समाप्त हो चुका होता है, वहां लोग होली की आग से पटाखे छुटाते हैं और आनन्द लेते हैं। कहीं-कहीं बड़े-बड़े नमक के ढले आग में डालकर आवाज पैदा की जाती है। यह आवाज क्यों पैदा की जाती हैं? इसका वैज्ञानिक विश्लेषण हम आगे करेंगे। होली स्थल पर लोग ढोल-मजीरा इत्यादि के साथ फाग और कबीर (होली के गीत) गाते हैं, गले मिलते हैं और अबीर लगाते हैं। लोग एक दूसरे को प्रणाम कर आशीर्वाद लेते हैं। अन्त में लोग गाते, बजाते होली स्थान से अपने-अपने घरों को प्रस्थान कर जाते हैं। दूसरे दिन शुरू होता है रंगों का खेल गांव, नगर के स्त्री-पुरुष, बूढ़े, बच्चे, जवान, सभी लाल, पीली, नीले, हरे जैसे अनेक प्रकार के रंगों को पानी में घोलकर पिचकारी या लोटा, बाल्टी इत्यादि से एक दूसरे पर रंग डाल कर सबको रंगीन बनाते हुए खुशियां मनाते हैं। इस समय विविध रंगों के अबीर, गुलाल को एक दूसरे के चेहरे एवं मस्तक पर लगाकर लोग आनन्दित होते हैं। पूरे गांव, शहर के लोग रंग में मानो रंगकर एक से दिखायी देने लगते हैं। इस समय लोगों की अपनी जातीय, धार्मिक, वैयक्तिक पहचान समाप्त हो चुकी होती है और वे मात्र आदमी के रूप में समरसता की पहचान बन चुके होते हैं। रंग डालने और अबीर, गुलाल लगाने का यह क्रम दोपहर तक चलता है।
इसके बाद लोग नहा-धोकर नये-नये कपड़े पहनकर एक दूसरे के यहां होली मिलने जाते हैं। एक दूसरे से गले मिलते हैं और प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इस दिन प्रत्येक घर में विविध प्रकार के व्यंजन, मिष्ठान तथा पकवान बनाये जाते हैं। लोग छककर पकवान का आनन्द लेते हैं और होली मिलने वालों को भी खिलाकर आनन्दित होते हैं। इस दिन सोमरस अर्थात् भांग1 पीना भी लोग आवश्यक मानते हैं। जो लोग कभी भी भांग नहीं लेते वे भी इस दिन भांग लेना आवश्यक समझते । कहीं–कहीं जैसे पूर्वी उ. प्र. में घड़ों में भांग घोलकर रख दिया जाता है। लोग वहां आकर भांग पीते हैं और फाग गाकर आनन्द मनाते हैं। इस दिन शाम को लोग एकत्र होकर भांग पीते है और कहीं-कहीं रात भर या देर रात तक फाग गाने का क्रम चलता है। कहीं विभिन्न टोलियां एकत्र होकर फाग दंगल में भाग लेकर प्रत्युतर में फाग गाती हैं। ऐसे स्थानों पर मेला जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। इस दिन विवाहित जोड़े काम-सुख प्राप्त करना भी नहीं भूलते हैं। बसन्त और सोम रस की मादकता, पुराने वर्ष की विदायी और नये वर्ष का स्वागत, शीत और गर्मी की सन्धि बेला का आनन्द कौन नहीं लेना चाहेगा। शायद इसीलिए होली को साहित्य में मदनोत्सव भी कहा गया है। ऐसे माहौल में एक रंग में रंगे हुए लोगों का एक हो जाना आश्चर्य नहीं पैदा करता है।
इस प्रकार बसन्त के उल्लासमय वातावरण में बड़े ही धूमधाम के साथ होली का यह राष्ट्रीय पर्व लोगों के जीवन में नयी उमंग और खुशियाँ भरता हुआ समाप्त होता है। होली क्यों मनायी जाती है? इसका उद्देश्य क्या है? होली जलाने, रंग खेलने, अबीर गुलाल, लगाने का क्या निहितार्थ है? होली में नवान्न क्यों डालते हैं? होली फाल्गुन की पूर्णिमा को ही क्यों जलाते हैं? होली की आग में पटाखे या गन्ना गरम कर पटक कर आवाज क्यों की जाती है? होली नाम क्यों पड़ा? होली की आग को पवित्र और होलिका को माता क्यों कहते हैं? होली में भांग पीने, गाने-बजाने का क्या अर्थ है? इसे मदनोत्सव क्यों कहा गया? होली के जन्म का इतिहास क्या है? होली कब प्रारम्भ हुई? होली को प्रारम्भ करने वाले लोग कौन थे? होली के साथ आग का क्या सम्बन्ध है? क्या होली भारत में ही मनायी जाती है अथवा विश्व के अन्य देशों में भी होली का पर्व मनाया जाता है? इत्यादि होली से जुड़े
कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो उत्तर की अपेक्षा रखते हैं। प्रस्तुत अध्याय में इन समस्त प्रश्नों का वैज्ञानिक उत्तर खोजने का प्रामाणिक प्रयास किया गया है और उसे वर्तमान से जोड़कर देखा गया है। इन प्रश्नों के उत्तर में ही होली का समाजशास्त्र अथवा विज्ञान छिपा हुआ है।
होली/होलिका क्या है?
होलिकोत्सव जैसा कि नाम से प्रगट होता है कि यह होली से जुड़ा हुआ उत्सव है। प्रश्न उठता है कि यह होली क्या है? गहराई से देखा जाय तो जिसे जनमानस होली या होलिका कहता है वह किसी हिरण्यकशिपु की बहन अथवा प्रह्लाद को मारने आयी उसकी बूआ नहीं है। यह तो प्रज्जवलित अग्नि है। लकड़ी, पेड़ तथा गन्ना आदि के पत्तों, गोबर के उपलों इत्यादि से बनायी या बढ़ायी गयी होली तो मात्र ज्वलनशील पदार्थों की ढेर होती है। जब ऐसे ढेर में आग लगायी जाती है, तो वह प्रज्ज्वलित होने लगती है और उस की लपटें ऊपर को उठने लगती हैं। इसे ही होली या होलिका कहते हैं। इस प्रकार होली या होलिका प्रज्ज्वलित अग्निपुंज का नाम है। ज्वलनशील लकड़ी आदि में आग लगने के साथ आस-पास की हवा गर्म होकर, हल्की होकर ऊपर उठने लगती है और नीचे से ठंडी हवा उसका स्थान ले लेती है। इस प्रकार हवा के गर्म होकर ऊपर उठने के साथ आग की लपटें भी ऊपर उठने लगती है ऐसी ऊपर उठती लपटों वाली प्रज्ज्वलित अग्नि ही होली या होलिका कही जाती है। होली को यह नाम कैसे प्राप्त हुआ? यह शोध का विषय हो सकता है। प्रहलाद की बूआ होलिका थी। वह उसे मारने आयी थी पर भगवान की कृपा से वह स्वयं जल मरी। उसी के नाम पर प्रज्ज्वलित आग के पर्व को होलिकोत्सव कहा जाने लगा। यह नामकरण वैज्ञानिक नहीं है। कम-से-कम यह नामकरण होलिकोत्सव की संस्कृति से किसी भी प्रकार मेल नहीं खाता है। मात्र किसी कवि के कहानी गढ़ देने से इसे सच नहीं माना जा सकता है। इसलिए इस पर गहराई से विचार कर निष्कर्ष निकालना समाज वैज्ञानिकों तथा मनीषा का काम है। आगे होलिकोत्सव की सम्पूर्ण सांस्कृतिक विशेषताओं का विस्तार से उल्लेख किया जायेगा, जिससे होली के नामकरण के रहस्य को समझकर निष्कर्ष निकालने में सुविधा होगी। यहां हम कुछ ऐसे ठोस तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे होली के नामकरण की वास्तविकता को समझा जा सकता है।
होलकोत्सव ही होलिकोत्सव
गहराई से देखने पर ज्ञात होता है कि ‘होली‘ यह नामकरण होला/होलक से निष्पन्न है। आजकल हरा चना या मटर की फली, हरी मूंगफली इत्यादि फली वाले अन्न को आग में भूनकर खाया जाता है। इस भुनी फली को ‘होला‘ कहा जाता है। जौ, गेहूं की हरी पकी बाली भी भुनने पर हाबुस और कहीं-कहीं होला ही कही जाती है। संस्कृत भाषा में इस होला को ‘होलक‘ कहा जाता है। शब्द कल्प-द्रुम के अनुसार तिनकों की अग्नि में भुने हुए शमीधान्य (फली वाले हरे पके अन्न) को ‘होलक‘ कहते हैं।‘ भाव प्रकाश जैसे वैद्यक शास्त्र में भी अधपके फली वाले अन्न को ‘होलक‘ कहते हैं जो बात, कफ, चर्बी और श्रम के दोषों को दूर करता हैं।‘ यह होलक नयी फसल की फलियों का होता है। यह स्वादिष्ट तो होता ही है, स्वास्थ्यवर्धक भी होता है। यही कारण है कि इसे लोग बड़े चाव से खाते हैं। होली की अग्नि में भी रबी की नयी फसल की जौ, चना, बरं, अलसी की फलियों को भूनकर ही उसे होली माता को समर्पित किया जाता है। अर्थात् नयी फसल के होला
1. तृणाग्नि भृष्टाद्धपक्व शमी धान्यं होलकः होला इति हिन्दी भाषा।
–शब्द कल्प द्रुम
2. अर्द्धपक्व शमीधान्ये स्तृणभृष्टैश्च होलकः ।
होलकोल्पानिलो मैदः कफदोष
श्रमापहः ।
भवेदथो होलकोयस्य स
तद्गुणों भवेत्।।
–भाव प्रकाश