लक्ष्मी गणेश का आर्थिक समाजशास्त्र
Economical Sociology of Laxmi Ganesh
पुस्तक से लिए गए कुछ महत्वपूर्ण शब्द बिन्दु एवं समीक्षा
दि. 05.11.2010 समीक्षक
स्थान: बनारस डॉ० राजनाथ सिंह
एशोसिएट प्रो० समाजशास्त्र
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
वाराणसी
समकालीन भारतीय समाजवैज्ञानिक क्षेत्र में डा० श्याम लाल सिंह देव “निर्मोही” किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं । आप समाजशास्त्रीय जगत में अपनी नयी-नयी प्रस्थापनाओं के लिए पहचाने जाते हैं । भारतीय समाजशास्त्र के क्षेत्र में तो आप की कृतियाँ अद्भुत देन मानी जायेगी। प्रतिष्ठित समाज शास्त्री तथा समाज विज्ञान संस्थान आगरा विश्वविद्यालय आगरा के प्रोफेसर राजेश्वर प्रसाद जी ने पुस्तक की भूमिका में आपको रेडिकल तथा फायर ब्राण्ड समाजशास्त्री ठीक ही कहा है। पत्रकारिता, साहित्य तथा सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में भी आपकी अपनी पहचान है। पुरानी पीढ़ी से लेकर नयी पीढ़ी तक के आप चहेते मित्र हैं । आपकी तर्क क्षमता तथा सत्य को पकड़ने की अद्भुत शक्ति सभी को अचंभित करती है।
डॉ. निर्मोही की यह नवीन कृति “लक्ष्मी गणेश का आर्थिक समाजशास्त्र” धार्मिक देवता लक्ष्मी और गणेश को काल्पनिक धार्मिकता के आवरण से बाहर निकाल कर उन्हें यथार्थ सामाजिक स्वरूप प्रदान करती हुई दिखायी देती है। लेखक ने वेद रामायण, महाभारत, स्मृति, पुराण जातक कथाओं जैसे धार्मिक ग्रंथों, ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों इत्यादि के आधार पर लक्ष्मी-गणेश से जुड़े जो नवीन निष्कर्ष दिये है उन्हें खण्डित करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। ये निष्कर्ष भारतीय मनीषा को झकझोरते तो हैं ही, नये ढंग से सोचने के लिए बाध्य भी करते है।
- लक्ष्मी मात्र धार्मिक पूजा की देवी न होकर महान कुरमी/कृषक अर्थात कूर्मावतार विष्णु की पत्नी थी। हजार गुनी पैदावार देने वाले धान की खोज आप ने ही की थी। आप का धान ही अन्ततः धन का पर्याय बन गया और लक्ष्मी धन की देवी बन गयी।
- लक्ष्मी का पान- लक्ष्मी, इक्षु-लक्ष्मी, भू-लक्ष्मी, हलायुधा-लक्ष्मी, श्री-लक्ष्मी, उलूक-लक्ष्मी जैसे रुप लक्ष्मी को कृषिका सिद्ध करते हैं। आप तो महान चाहा विज्ञानी तथा पशु विज्ञानी थी।
- लक्ष्मी और विष्णु का “क्षीर सागर शेषनाग शैय्या” सर्पों के बीच धान की खेती का प्रतीक है। सफेद चावल का भण्डार क्षीर सागर है तो धान क्षेत्र में पाये जाने वाले बहुसंख्यक सापों को ही शेषनाग शैय्या कहा गया है। यह कृषकों के जोखिम भरे जीवन का प्रतीक है।
- लक्ष्मी नें ही फसल तथा धरा की रक्षा के लिए विश्व के सबसे बड़े चूहामार उल्लू की खोज की । वह उल्लू लक्ष्मी का वाहन नहीं वरन धनार्जन में सहायक आपका मित्र है ।
- खोज के अनुसार गणेश कोई व्यक्ति न होकर ‘उपाधि’ है। धर्मग्रन्थों में शिव गणेश, ब्रह्मा गणेश, विष्णु गणेश, लक्ष्मी गणेश, इंद्र गणेश, बुद्ध गणेश, किसान गणेश के भी रूप मिलते हैं । इस नयी खोज में देवराज, असुरेन्द्र, ज्येष्ठराज विनायक, राष्ट्रपति, गणपति, महादेव, सभी गणेश के पर्यायवाची हैं ।
- आप की ‘एकदन्त गणेश‘ के स्थान पर ‘एक श्रृंग गणेश‘ की खोज चौंकाने वाली है। आप के अनुसार पहला गणेश जनजाति का नायक एक श्रृंग गणेश था जो एक सींग (श्रृंग) का मुकुट धारण करता था। पौराणिकों ने जब गणेश को हस्तीमुख बना दिया तो उन्होंने “एक श्रृंग गणेश” को “एकदन्त गणेश” कर दिया, क्योंकि हाथी को सींग नहीं लगाया जा सकता था।
- डॉ० निर्मोही की यह खोज कि “प्रथम पूज्य गणेश मूसहर जाति और शूद्र वर्ण के थे”। छूत-अछूत का भेद करने वाले समस्त हिन्दुओं के गाल पर यह एक करारा तमाचा है। गणेश को मल/मैल से उत्पन्न दिखाना, उन्हें गोबर (मल) से बनाना तथा उनका उच्छिष्ट गणेश रूप उन्हें निम्न जाति का होना सिद्ध करते हैं। उनके हाथ में लकड़ी काटने के लिए कुल्हाड़ी, बांधने के लिए रस्सी, चूहों का बिल खोदने तथा मारने के लिए शुम्भी/शूल, उनका काला कलूटा रूप उनको मूसहर जाति का सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।
- आप की यह खोज चौंकाने वाली है कि गणेश विश्व के सबसे बड़े चूहामार थे। इसीलिए किसानों के देश में खेती के शत्रु चूहों का विनाश करने वाले गणेश को महत्व दिया गया। लक्ष्मी के उल्लू और गणेश द्वारा चूहों के विनाश के कारण ही धान पर्व दीवाली पर दोनों की एक साथ एक वेदी पर पूजा शुरू हुई। लक्ष्मी का मित्र उल्लू भी विश्व का सबसे बड़ा चूहामार है ।
- ‘लक्ष्मी गणेश पूजा वास्तव में धार्मिक पूजा न होकर भौतिकता की आराधना रही है। इसी के बल पर भारत सोने की चिड़िया तथा विश्व गुरू बना था। धार्मिकता ने तो इस देश को भिखारियों का देश बना दिया।
- यह पुस्तक पवित्रता के अहंकारी ब्राह्मणों की पोल भी खोलती है कि उन्होंने किस प्रकार शूद्र गणेश को काल्पनिक बनाकर अन्त में उन्हें अपने देव मण्डल में सम्मिलित किया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले गणेश का असली नाम गायब किया। फिर उन्हें एक दन्त हस्तीमुख बनाया। डॉ० निर्मोही का यह प्रश्न कि जब प्राचीन गणेशों के अपने नाम हैं जैसे इन्द्र गणेश, शिव गणेश आदि तो अन्तिम गणेश का असली नाम क्यों नहीं दिखाया गया है। शायद शूद्रता को छिपाने के लिए ही ऐसा किया गया।
- ‘इस खोज के अनुसार गणेश न तो हस्तीमुख पैदा हुए थे और न ही काटकर हाथी का सिर लगाया गया था। वे तो सुण्डा (चूहा) मारते थे। दक्षिण भारत में सुण्डा, चूहा को कहते हैं। अतः सुण्डा गणेश को ही शुण्ड गणेश कर दिया गया। संस्कृत में शुण्ड का अर्थ हाथी का शूड़ होता है। इस प्रकार गणेश पूर्णतः काल्पनिक हस्तीमुख गणेश बन गये।
कुल मिलाकर यह पुस्तक धार्मिकों, समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, शोधार्थियों तथा समस्त भारतीय जनता को भारतीय समाज, धर्म एवं संस्कृति को समझने की नयी दृष्टि प्रदान करती है। चूहा मारते गणेश के चित्र के साथ पुस्तक का कवर पृष्ठ अत्यन्त आकर्षक है। कागज तथा मुद्रण अत्युत्तम है। अन्तिम 14 वें अध्याय “चित्र बोलते है” के 55 चित्रों ने तो मानो जान डाल दिया है। हां कवर पृष्ठ का “गणेश का चूहा मारता” चित्र कट्टरपन्थियों को उद्वेलित कर सकता है। इससे बचा जा सकता था। कुछ भी हो पुस्तक सबके लिए संग्रहणीय है। नवीनता के खोजी इसे अवश्य पसन्द करेंगे।
सारांश
“लक्ष्मी गणेश का आर्थिक समाजशास्त्र” पुस्तक आध्यात्मिकता- धार्मिकता का समाजीकरण है। यह प्राचीन भारतीय सामाजिक घटनाओं को धार्मिक काल्पनिकता के आवरण से बाहर निकाल कर उसे यथार्थ समाज वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करती है। यह वर्तमान एवं अतीत के समाज शास्त्र को जोड़ने वाली कड़ी है।
यह बताती है कि लक्ष्मी और गणेश की पूजा इसलिए प्रारम्भ हुई क्योंकि इन्होंने अपने पौरुष एवं प्रयत्नों से देश को धन-धान्य से भर दिया जिससे सभ्यता एवं संस्कृति का विकास तीव्र गति से आगे बढ़ा। यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि लक्ष्मी भारतीय समाज की एक आदर्श नारी और महान् कृषिका थीं। यह तीसरे कूर्मावतार (ब्रह्मा और शिव जैसे कूर्मावतार पहले हो चुके थे) विष्णु की पत्नी थीं। हजार गुनी पैदावार देने वाले धान की खोज इन्होंने ही की थी। आप का धान ही कालान्तर में धन का पर्याय बन गया। धन-धान्य की वृद्धि करने के कारण लक्ष्मी धन की देवी कही जाने लगी। फिर तो लक्ष्मी और धन पर्यायवाची हो गये।
लक्ष्मी एक ऐसी महान् कृषिका थीं, जिन्होंने न केवल धान की खेती का विस्तार किया वरन् खाद्यान्न तथा सामानों को नुकसान पहुंचाने वाले खेती के सबसे बड़े शत्रु चूहों के विनाश के लिए उनके सबसे बड़े संहारक उल्लू की खोज भी की। और उनके पालने पर जोर दिया। धन के रक्षक उल्लू को इसीलिए लक्ष्मी के वाहन के रूप में दिखाया जाता है और धान के पर्व दीवाली पर उल्लू के साथ लक्ष्मी की पूजा की जाती है। पुस्तक में अनेकों गणेशों की खोज एवं उनकी उपलब्धियों का भी चित्रण किया गया है। इसके अनुसार ‘गणेश‘ कोई व्यक्ति न होकर उपाधि रही है, जिसे देवतागण के सबसे श्रेष्ठ देवता को प्रदान किया जाता था। देवता का अर्थ होता है देने वाला। इस प्रकार सबसे अधिक योगदान देने वाला गणेश कहा जाता रहा है। एकशृंग गणेश के साथ ही ब्रह्मा-मनु, शिव, इन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, चण्डी, बुद्ध, कृषक इत्यादि को भी इसी आधार पर गणेश कहा गया है। हस्ती मुख वाले अर्थात्: शुण्ड गणेश अन्तिम गणेश है, जिनका असली (मूल नाम अज्ञात है पुस्तक गणेश उपाधिधारी व्यक्ति के मूल नाम के अज्ञात होने के रहस्य पर से भी पर्दा उठाती है। इस गणेश की पूजा भी खेती के शत्रु चूहों के विनाश में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण हुई। चूहों को गणेश का वाहन तो बाद में बनाया गया। क्यों बनाया गया ? इस पर से भी पर्दा उठाया गया है। चूहों के विनाश में लक्ष्मी, गणेश की समान भूमिका के कारण ही दोनों की एक साथ एक वेदी पर पूजा की जाती है। पुस्तक में गणेश के जन्म और हस्तीमुख होने की पौराणिक कहानियों का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसके वास्तविक आधारों को भी खोजा गया है। इसके अनुसार गणेश का सिर न तो काटा गया और न ही हाथी का सिर काटकर लगाया गया और न ही वे हस्तीमुखी पैदा ही हुए थे। वे तो मानव-मुखी थे। सुण्डा (चूहा) के आधार पर सुण्डा गणेश ही शुण्ड गणेश कहे जाने लगे। अन्य तथ्यों ने इसे सैद्धान्तिक आधार प्रदान कर प्रस्थापित कर दिया।
पुस्तक में धन की देवी लक्ष्मी के अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, कृषि तथा पशु-पक्षी विज्ञानी स्वरूप का भी चित्रण किया गया है और गणेश को भी इसी रूप में देखा गया है। वास्तव में लक्ष्मी-गणेश की पूजा मात्र धार्मिक पूजा न होकर पुरुषार्थ एवं भौतिकता की ही पूजा है। गणेश का वाहन यदि चूहा होता तो कृषि प्रधान भारत में कृषि के प्रमुख शत्रु चूहा वाले गणेश की पूजा यहां कभी भी नहीं की जाती। हिन्दू मल खाने वाले अर्थात् सफाई के पशु सूअर को अपना देवता (अवतार) बना सकते हैं तो उन्होंने कृषि प्रधान भारत में खेती और अन्न-धन के शत्रु चूहों का विनाश करने वाले विनायक को अपना देवता बनाया तो इसमें आश्चर्य कैसा? सच तो यह है कि जैसे धार्मिकों ने लक्ष्मी के चूहा संहारक उल्लू को उनका वाहन बना दिया वैसे ही चूहे को गणेश का वाहन बना दिया, जिससे धन-धान्य की वृद्धि से जुड़ा सच तिरोहित हो गया।

गणेश की अवधारणा : अर्थ एवं पर्याय
भारत में आज भी दीवाली के अवसर पर लक्ष्मी के साथ ही गणेश की पूजा अनिवार्य रूप से की जाती है। इतना ही नही प्रत्येक हिन्दू अपने जन्मोत्सव, विवाहोत्सव, यज्ञ, हवन, पूजा तथा समस्त महत्वपूर्ण कार्यों, जैसे- भवन निर्माण, गृह प्रवेश, उद्योग-धन्धे खोलने इत्यादि के अवसर पर सर्व प्रथम गणेश की पूजा करता है। इस प्रकार हिन्दुओं के समस्त देवी-देवताओं में गणेश को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आश्चर्य होता है ऐसे अवसरों पर गोबर का गणेश बनाया जाता है। गणेश के चित्रों, मूर्तियों के साथ उनके हाथों में कुल्हाड़ी (परशु); रस्सी (पाश); गदा, लङ्ग धान की बाली, त्रिशूल, धनुष वाण, शूल, शंख तलवार, चक्र, वज्र कमल लेखनी इत्यादि को भी दिखाया जाता है। उनका मुख्य साथी (वाहन) चूहा बताया जाता है। इसके साथ ही उन्हें मोर सिंह/मेंढ़क घोड़ा पर आरूढ़ भी दिखाया जाता है। पुराणों एवं धर्मशास्त्रों के अनुसार कृत युग में उनका वाहन सिंह है1 और उनका नाम विनायक है। त्रेता में उनका नाम मयूरेश्वर है और वाहन मोर है। द्वापर में गजानन है और चूहा उनका वाहन है तो कलियुग में उनका नाम धुमकेत है और घोड़े पर सवार वे म्लेच्छवाहिनी का विनाश करते हैं ।2
प्रश्न उठता है कि गणेश की प्रथम पूजा का क्या आधार है? उनकी पूजा कब से प्रारम्भ हई? उन्हें हस्ती मुखी क्यों बनाया जाता है? उनके साथ जुड़े प्रतीकों का क्या निहितार्थ है? उन्हें मैल या गोबर से क्यों बनाया जाता है? उनकी सवारी के रूप में चूहा दिखाने का क्या निहितार्थ है। क्या वास्तव में वे चूहे पर सवारी करते थे? धान की फसल होने पर, दीवाली पर्व पर लक्ष्मी के साथ चूहा वाले गणेश की पूजा क्यों की जाती है। जब कि चूहा धान आदि फसलों का शत्रु होता है। पूजा में एक तरफ उल्लू वाली लक्ष्मी और दूसरी तरफ चूहा वाले गणेश होते हैं। विश्व का सबसे बड़ा चूहा मार उल्लू क्या गणेश के वाहन चूहे को खा नहीं जायेगा। ये सारे प्रश्न उत्तर की अपेक्षा रखते हैं। इतना ही नहीं उन्हें गणेश या विनायक क्यों कहा जाता है? उनका मूल नाम क्या था। इन सारे प्रश्नों का उत्तर धार्मिकों ने अपने-अपने ढंग से दिया है। समाजशस्त्रियों द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास कभी नहीं किया गया। जब कि इन प्रश्नों के उत्तर में ही भारतीय समाज शाख का अतीत छिपा हुआ है। गहराई से देखा जाय तो भारतीय समाज में गणेश का अपना समाजशास्त्र है।
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1. सिंहोपरि स्थित देवं पन्चवाक्यं गजाननम्।
–शिल्परत्न 20 वां अध्याय
2. गणेश पुराण 1/18/21; मिलाये रूप मण्डन, पद्म पुराण, सृष्टि 66/4; |
प्राचीन साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि ‘गणेश‘ शब्द कभी भी व्यक्ति के नाम का वाचक नहीं रहा। यह शब्द तो पदवी का द्योतक रहा है। जिसे देवों में सर्वश्रेष्ठ देव को प्रदान किया जाता रहा है। वैदिक काल में देव देवता का अर्थ “समाज के लिए देने वाला रहा है।1 वैदिक ऋषियों ने इसीलिए जीवन देने, सहयोग करने वाले सूर्य चांद, सितारे, हवा, पानी, आग, पृथ्वी, नदी, पहाड़, वनस्पति, वर्षा इत्यादि को देवता
कहने के साथ ही सर्वाधिक श्रेष्ठ सम्राटों महामानवों-इन्द्र2, वरुण, रुद्र, विष्णु, इत्यादि को भी देवता मानकर उनके लिए गीत लिखे। इतना ही नहीं अन्नोत्पादन कर लोगों का पालन-पोषण कर उन्हें वन देने वाले व्रात्यों अर्थात् कृषकों को भी देवता मानकर उनके लिए मंत्र लिखे गये हैं।3 साथ ही अपना पूर्वज4 होने तथा अन्न उत्पादन एवं वृद्धि में सहायक मेंढक तथा चूहा आदि फसल के शत्रुओं का विनाश कर अन्नोत्पादन में वृद्धि करने वाले उल्लू, बिल्ली, सांप को भी ऋषियों ने देवता माना है। इस प्रकार समाज के लिए “देने वाला ही देवता” कहा जा सकता है। ऐसे समस्त देवों में सबसे बड़े दाता को गणेश कहा जाता रहा है।
गणेश का मूल अर्थ
1. देवगण का ईश गणेश
प्राचीन साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि ‘गणेश‘ शब्द कभी भी व्यक्ति के नाम का वाचक नहीं रहा। यह शब्द तो पदवी का द्योतक रहा है। जिसे देवों में सर्वश्रेष्ठ देव को प्रदान किया जाता रहा है। वैदिक काल में देव देवता का अर्थ “समाज के लिए देने वाला रहा है।1 वैदिक ऋषियों ने इसीलिए जीवन देने, सहयोग करने वाले सूर्य चांद, सितारे, हवा, पानी, आग, पृथ्वी, नदी, पहाड़, वनस्पति, वर्षा इत्यादि को देवता कहने के साथ ही सर्वाधिक श्रेष्ठ सम्राटों महामानवों-इन्द्र2, वरुण, रुद्र, विष्णु, इत्यादि को भी देवता मानकर उनके लिए गीत लिखे। इतना ही नहीं अन्नोत्पादन कर लोगों का पालन-पोषण कर उन्हें वन देने वाले व्रात्यों अर्थात् कृषकों को भी देवता मानकर उनके लिए मंत्र लिखे गये हैं।3 साथ ही अपना पूर्वज4 होने तथा अन्न उत्पादन एवं वृद्धि में सहायक मेंढक तथा चूहा आदि फसल के शत्रुओं का विनाश कर अन्नोत्पादन में वृद्धि करने वाले उल्लू, बिल्ली, सांप को भी ऋषियों ने देवता माना है। इस प्रकार समाज के लिए “देने वाला ही देवता” कहा जा सकता है। ऐसे समस्त देवों में सबसे बड़े दाता को गणेश कहा जाता रहा है।
कुछ व्याकरणाचार्यों ने सूर्य, चन्द्रमा, सितारे, आग जैसे चमकने वाले देवों के आधार पर ‘दिव‘ धातु निकाली और उसका अर्थ “चमकना” किया। इस प्रकार उनके अनुसार चमकने वाले देवता कहे गये। परन्तु दाता या देने वाले ‘बिना चमकने वाले‘ भी होते हैं। अतः देवता अर्थ ‘चमकने वाला‘ वैज्ञानिक अर्थ नहीं देता है। यह सच है कि देवताओं/महामानवों आदि का प्रभाव दूर तक दिखायी देता है, परन्तु कालों के बीच सफेद चमड़ी वाले दूर से चमकते हैं तो क्या उन्हें उनके बिना किसी योगदान के देवता कहेंगे? निश्चय ही उन्हें कोई देवता नहीं कहेगा।
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1. देवो दानाद् वा दीपना वा द्योतनाद् वा-यास्क, निरुक्त 3/7/4/15
2. इन्द्र वेदों का सर्वश्रेष्ठ सबसे बड़ा देवता है जिसके लिए ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 मंत्र लिखे गये हैं।
3. व्रात्य/कृषक देवता. ऋ. 2/26/6, 6/75/9; 10/57/5; अथर्व; 15/1/1-8, 10/5/34, 15/2/17,
15/8/1 इत्यादि।
4. मण्डूक : पितरः, अथर्व; 5/15/17; मिलाये ऋ. 7/103/6; 7/103/10
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्राह्मणों विशेषकर भूसुरों/आर्य ब्राह्मणों ने देव देवता का चमकना अर्थ ही प्रसारित किया है। कारण वे गोरे थे और श्यामवर्णी भारत के मूल निवासी विशे (जिन्हें असुर भी कहा गया है) के बीच चमकते थे। इसलिए स्वयं को देवता सिद्ध करने के लिए उन्होंने चमकने वाले अर्थ को महत्व दिया और स्वयं को भी देवता कहने लगे। इस प्रकार आर्य का पर्यायवाची ‘सर‘ शब्द जो सरा पीने वालों1 (शराबी) का प्रतीक था, देवता का पर्याय बना दिया गया। ऐसे सुर स्वर्गलोक2 (यूरोपीय देशों) से जब भारत जैसे भूलोक3 में बस गये तो वे स्वयं को ‘भू‘ के आधार पर भूसुर भूदेव (धरती का देवता) कहने लगे। इस प्रकार देवता, सुर, भूसुर, ब्राहमण पर्यायवाची बना दिए गये। परिणाम यह हुआ कि ब्राहमणों/ भूसरों को देवता का सम्मान मिलने लगा, जिसके कारण विदेशी भूसुर ब्राहमण उच्च हो गये और फिर उन्होंने भारत के मूल निवासियों को निम्न घोषित कर दिया। यह सब देवता के अर्थ का अनर्थ करने के कारण हुआ। अब समय आ गया है कि उसके मूल अर्थ को स्वीकार किया जाय।
अन्ततः देवता का एक ही अर्थ हैं जो देने वाला है, सबका हित करता है, परोपकारी है, किसी को कष्ट नहीं देता है। अर्थात् श्रेष्ठ तथा रचनात्मक गुणों से जो युक्त है, वही देवता है। इस अर्थ में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वाय, पानी, पृथ्वी, नदी, पहाड़, वृक्ष, वर्षा, किसान, मेढ़क, उल्लू, बिल्ली, शिक्षक, (गुरु) माता-पिता, वैज्ञानिक, आविष्कारक, कवि, लेखक, गायक, इत्यादि सभी देवता हैं।
देवता के लिए काले, गोरे, नीले, पीले का कोई अर्थ नहीं है। इसमें मनुष्य, जीव-जन्तु, ग्रह-उपग्रह, इत्यादि सभी आ सकते हैं।
ऐसे समस्त देव मण्डल देव समूह में सर्वश्रेष्ठ देवता को ही गणश‘ कहा जाता रहा है। विनायक, गणपति, गणेश्वर, गणाधिपति, जेष्ठराज, देवराज, जनगण नायक, महादेव, देवाधिदेव, सर्वेश्वर, जैसे नाम भी गणेश के ही पर्यायवाची हैं। यह गणेश शब्द गणराज्य के नायक, राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्रपति का भी प्रतिक है।
शाब्दिक व्युत्पत्ति की द्दष्टि से गणेश
शाब्दिक व्यत्पत्ति की दृष्टि से ‘गणानां ईशः इति गणेशः‘ अर्थात देवगणों का ईश्वर या स्वामी ही गणेश है। गणपति, गणाधीश, गणेश्वर जैसे शब्दों का भी यही अर्थ है। इसी लिए ऋग्वेद में गणेश को “गणानां त्वा गणपतिम्4” कहकर याद किया गया है। इसी प्रकार कृष्ण यजुर्वेद में भी ‘गणानां त्वा….’5 तथा शुक्ल यजुर्वेद में गणेश को ‘गणानां त्वा गणपति‘6 के साथ ही प्रिय-प्रियपति, निधि, निधिपति जैसे रूपों में प्रस्तुत किया गया है।
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1. असुरास्तेन दैतेवाः सुरास्तेनादिते सुताः
इप्टा प्रमुदिताश्वासन बारुजी ग्रहणात सुराः, –या. रामायण, बाल काण्ड 45/38
मिलायें दयानन्द सरस्वती, ऋग्वेद भाष्य 1/27/10
2. देखें लेखक डॉ. एस. एल निर्मोही की कृति “आदिमाता मनु और मानुषीकरण, उत्तर प्रदेश समाज परिषद 1998, स्वर्ग-लोकों का भूगोल पृ. 139-157.
3. वही, “मनुष्य लोक और उसकी स्थिति” पृष्ठ 119-198
4. गणाना या गतिमावामहे कवि कवीनामश्रवस्तमम्। ज्येष्ठराज बहुमणा अलपत ओम शणन तिभिः सीद सादनम्।। –क. 2/25/1
5. कृष्ण यजुर्वेद तैत्ति, संहिता 2/8/14/3
6.शुक्ल यजुर्वेद, माध्यन्दिन संहिता 23/19
अथर्ववेद के गणेश पूर्व तापिनी उपनिषद् में गणेश को गणनाथ, सुरेन्द्र एवं ज्येष्ठराज भी कहा गया है।1 गणेशोत्तर तापिनी उपनिषद में उन्हें गणपति की संज्ञा दी गयी है।2 बृहस्पराशर स्मृति में गणेश को गणेश्वर कहकर याद किया गया है।3 इसी प्रकार बाद के समस्त पौराणिक ग्रन्थों में गणेश को किसी न किसी रूप में याद किया है। गण का पति (स्वामी) होने से वह गणपति है4 तो सब का स्वामी (ईश्वर) होने से सर्वेश्वर और गण का ईश्वर होने से वही गणेश्वर भी है।
इस प्रकार गण का स्वामी ही गणेश है। यह गण देव गण हो सकता है और आम जनता का गण (समूह) भी। सभी का स्वामी या ईश्वर होने से वह गणेश है, गणपति है, गणेश्वर हैं, या गणाधीश है। ये सभी नाम एक ही उपाधि के सूचक हैं।
2. शिव/रूद्र गण का ईश गणेश
रुद्र के अनुचर भी गण कहे गये हैं। रामायण में रुद्र के अनुचरों के समूह को गण कहा गया है।5 इस आधार पर शिव रुद्र के गण ईश स्वामी को भी गणेश कहा गया है। हस्तीमुख गणेश को शिव पुत्र माना गया है। इस आधार पर उन्हें रुद्र गण का ईश मान लिया गया। जबकि गणेश इससे विराट संकल्पना है।
3. सैन्य गण का नायक गणेश
संख्या विशेष वाली सेना की टुकड़ियों को भी गण कहा जाता है-हाथी-27, रथ-27, घोड़े-81, पैदल 135 कुल, 270 की टुकड़ी को एक गण कहा जाता रहा है। ऐसे कई गणों के स्वामी को भी गणेश कहा जा सकता है।
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1. गणानां त्वा गणनाथ सुरेन्द्रं कविं कवीनामतिमेघ विग्रहम् ज्येष्ठरांज वृषभं केतुमेंक स नः शृण्वन्नूतिभिः सीद शश्वतां –अथर्व-गणेश पूर्वतापिनी उप. 1/15
2. गणनां त्वा गणपतिम् प्रचोदयात्।। –गणेशोत्तर उप02
3. तस्मात् तदुपशान्त्पर्थ समभ्यर्च गणेश्वरं।। –वृहस्पराशा स्मृत्ति 11/9
4. नमो गणेश्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो-नमो बातेभ्यो बातपतिश्यश्च यो नमो-नमो गृत्सेभ्यो गृत्स पतिभ्यश्च वो नमा नमो विरुपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमः। –शुक्ल यजुर्वेद 16/25
5. धनाध्यक्ष समो देवः प्राप्तोहि वृषभध्वजः।
उमा सहायो देवेशो गणश्च बहुभिर्युतः ।। -या. रामायण
4. शब्द गण के स्वामी गणेश
व्याकरण की दृष्टि से अक्षर समूह, शब्द समूह, वर्ण समूह (स्वर एवं व्यञ्जन),अर्थ समूह, रस समूह, छन्द समूह को गण कहा जाता है।1 छन्द शास्त्र में आठ गण हैं-भगण, जगण, सगण, यगण, रगण, तगण, मगण, औरं नगण। इस समूह में नौ रस हैं। व्याकरणाचाणों के अनुसार गणेश इन सबके स्वामी हैं। वाणी में परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैरवरी चारों नाद अभिप्रेत हैं। इसलिए गणेश इसके भी स्वामी हैं। गणेश का लेखक रूप इसकी ओर संकेत करता है।
कुछ भी हो गण का अर्थ समूह हैं और ऐसे किसी भी समूह/गण के नायक ईशवर को गणेश कहा जाता रहा है, यह भी हो सकता है कि ऐसे देवगण, जनगण, रुद्रगण, सैन्यगण, शब्दगण, तथा अन्य अनेक गणों के एक साथ ईश होने से उन्हें गणेश कहा जाता रहा है। कम से कम एक गण का ईश गणेश नहीं हो सकता है और न ही वह प्रथम पूज्य ही हो सकता है। प्रथम पूज्य होने के लिए तो उसे विविध गणों का ईश होना ही अधिक श्रेयस्कर है। शीर्षक है-अब हम गणेश के कुछ पर्यायवाची शब्दों का विश्लेषण करेंगे।
1. विनायक
विनायक शब्द गणेश का पर्यायवाची है। कल्प मानव गृह्य सूत्र2 बौधायन गृह परिशिष्ट3 याज्ञवल्क्य स्मृति4 जैसे ग्रन्थों में गणेश के लिए विनायक शब्द का प्रयोग किया गया है। विनायक संहिता में “एतान् प्रयुज्जन् विनायकान प्रीणाति” कहकर गणेश पूजा विधि का वर्णन है।5 याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय में विनायक को विघ्नकारक अर्थात् विघ्न पैदा करने वाला बताया गया है।6 याज्ञवल्क्य स्मृति की मीताक्षरा टीका में गणेश जी के मंत्र, “गणानां त्वा…” का उल्लेख हुआ है, जिसमें रुद्र और ब्रह्म देव ने विनायक को गणों का नायक बनाकर मध्व यज्ञों में विघ्न करने के लिए उन्हें नियुक्त किया था।7
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1. वर्णानामर्थ संघानां रसानां छन्दसामपि
मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणी विनायकौं
–तुलसीदास रामचरित मानस बालकाण्ड
2. अथातो विनायकान् व्याख्यास्मः।-कल्पमानव गृह्य सूत्र 2/14
3. अथातो विनायक कल्पान व्याख्यास्यामः। बौधायन गृहपरिशिष्ट 3/10
4. एक विनायकं पूज्य गृहांश्चैव विधानतः।
कर्मणां फलामाप्नोति प्रियं प्रापनोत्यनुत्तमाम्।।
–याज्ञवल्क्य स्मृति 293
5. डॉ. प्रेम शंकर द्विवेदी तथा डॉ. शिव कुमार शर्मा, भारतीय साहित्य तथा कला में गणेश,
कला प्रकाशन वाराणसी 1996, पृ. 18 पर उद्धृत।
6. विनायकः कर्म विघ्न सिध्यर्यथ विनियोजितः
गणानांमाधिपत्ये च रुदेण ब्रह्मणा तथा।।।
–याश्रवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय 271
7. याज्ञवल्क्य स्मृति मीताक्षरा टीका 286
विनायक के प्रमुख छ: नामों का उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है-(1) मित (2) सम्मित (3) शाल (4) कटकट (5) कूर्माण्ड (6) राजपुत्र। शिवपुराण भी गणेश को विनायक कहता ।1 इसी प्रकार मत्स्य पुराण2 जैसे समस्त पुराणों में भी गणेश को विविध नामों से स्मरण किया गया है।
पुराणकारों के अनुसार गणेश को माता पार्वती ने शंकर जी की अनुपस्थिति में जना था अर्थात् बिना नायक (पिता) के पार्वती जी ने विनायक गणेश को अपने शरीर की मैल से पैदा किया था। अतः “बिना नायकेन इति विनायकः” के आधार पर गणेश को विनायक भी कहा गया।3 उनके अनुसार यही विनायक की शाब्दिक व्युत्पत्ति है। परन्तु मेरी दृष्टि से यह युत्पत्ति वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि बिना नायक (पिता) के अभी तक कोई सन्तान नहीं पैदा होती है। यह सच है कि पार्वती ने उन्हें अपना मान्य पुत्र माना हो। पर इसी से व्युत्पत्ति सही नहीं हो जायेगी। भारत में आध्यात्मिक गुणों से युक्त अज्ञात पिता की नारद जैसी सन्तानों को ब्रह्मा का मानस पुत्र तथा ऐसी ही वीरोचित् गुणों से युक्त कर्ण, बालि जैसी सन्तानों को सूर्य-पुत्र कहने की परम्परा रही है। इसी प्रकार माता पार्वती ने गणेश को अपना मानस पुत्र माना तो इसी से वह बिना पिता वाला पुत्र तो नहीं हो सकता है। गणेश को पार्वती द्वारा शरीर के मैल से पैदा करने का अपना निहितार्थ है, जिसका विश्लेषण हम आगे करेंगे। यह तो धार्मिकों का अपना प्रस्तुतीकरण है।
गहराई से देखा जाय तो “विशिष्ट नायकः इति विनायकः” अधिक सही व्युत्पत्ति है। गण का ईश या स्वामी वही हो सकता है, जो सबको साथ लेकर चलने की सामर्थ्य रखता हो, जो सर्वश्रेष्ठ हो सबका क्षेमकर्ता हो। नायक का अर्थ होता है नेता अर्थात् जो सबको अपने पीछे ले चले। ऐसा वही कर सकता है, जिसमें विशेष गुण हों।
इस प्रकार विशिष्ट नायक (नेता) ही विनायक कहा जा सकता है। गणेश में ये गुण थे। अतः उनकी नेतृत्व क्षमता के कारण उन्हें विनायक भी कहा गया।
2. ज्येष्ठराज
विनायक/गणेश को ‘ज्येष्ठराजः‘ भी कहा गया है। अथर्ववेद में गणेश के अनेक नामों में ‘ज्येष्ठराज’ शब्द भी आया है।4 शौनक संहिता में भी ‘ज्येष्ठराज‘ शब्द गणेश के लिए आया है।5 तैत्तिरीय संहिता में ज्येष्ठराज तथा “वत्सराज” शब्द आया है। साकल संहिता में भी गणेश के लिए ‘ज्येष्ठराज‘ शब्द का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं गणेश के बड़े भाई (ज्येष्ठ) कार्तिकेय के लिए ज्येष्ठराज शब्द का अर्थ किया जाता है, परन्तु इसमें सच्चाई कम है। क्योंकि ज्येष्ठराज शब्द देवों में ज्येष्ठ अर्थात् बड़ा होने से यह शब्द गणेश के लिए ही प्रयुक्त है। शाब्दिक व्युत्पत्ति की द्वष्टि से “देव गणानां ज्येष्ठः राज्ञः इति जेष्ठराजः” होता है। गणेश देवगणों में बड़ा (श्रेष्ठ) होने से प्रथम पूज्य हैं। अतः गणेश ही “ज्येष्ठराज” भी हैं।
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1. शिव पुराण, रुद्र सं. यु.खं 10/6
2. विनायक प्रवक्ष्यामि गजवक्र त्रिलोचनं….” -मत्स्य पुराण 260/52-55
3. नायकेन बिना देवि मया भूयोऽिप पुत्रकः
तस्माज्जातस्ततो नाम्ना भविष्यति विनायकः।। -शिवपुराण 33/72-73
गणेश पूर्वतापिनीः उपनिषद् 1/15
5. तं सुहत्या विवासे ज्येष्ठराजं भरे कुलम्। महोवाजिनं सनिभ्य।
–शौनक सं. 20/443
3. देवराज
गणेश का एक पर्याय ‘देवराज‘ भी है। सामान्य जनों की धारणा में (पौराणिक वर्णन में) देवराज शब्द इन्द्र का पर्याय है, जिसका अर्थ है देवों का राजा। देवगणों का ईश्वर स्वामी राजा को गणेश/ विनायक कहा गया है। “देवगणानां राज्ञः इति देवराजः।” यह व्युत्पत्ति देवराज को गणेश का पर्याय बताती है। आगे हम देखेंगे कि इन्द्र भी वैदिक गणेश या विनायक है। वेदों का सबसे बड़ा देवता होने से वह निश्चय ही गणेश है और इस आधार पर उसके लिए प्रयुक्त “देवराज‘ शब्द गणेश का ही पर्याय है।
4. जनगणनायक
इसी प्रकार जनगणनायक भी गणेश का ही एक पर्याय हैं। विनायक की तरह “जनगणानां नायकः इति जनगणनायकः” इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है, जिसका अर्थ वही है, जो विनायक का है। इस प्रकार जनगण अर्थात् मानव समूह का नायकत्व (नेतृत्व) करने के कारण विनायक (गणेश) ही जनगण नायक हैं। इन्द्र, विष्णु, महाराजा बलि, वेन, पृथु इत्यादि ऐतिहासिक चरित्र इसी प्रकार के जनगणनायक अर्थात् गणेश थे। इस प्रकार राजा, सम्राट, विराट इत्यादि भी गणेश के पर्याय हैं।
5. महादेव/देवाधिदेव
यद्यपि महादेव आदिदेव महाराज शिव के लिए रुढ़ हो गया है, परन्तु यह शब्द भी गणेश का ही पर्याय है। महादेव का शाब्दिक अर्थ है समस्त देवों में महान् या बड़ा देवता अर्थात् सर्वश्रेष्ठ देवता। ऐसा महान् देवता ही तो गणेश कहलाने का अधिकारी हो सकता है। इस प्रकार सब का स्वामी, गण का नायक (नेता), ज्येष्ठराज, विशिष्ट नायक अर्थात् विनायक ही तो महादेव कहा जा सकता है। निश्चय ही महादेव शब्द गणेश का ही
पर्यायवाची है। शंकर भी कभी गणेश कहे जाते थे और महादेव शंकर के लिए रुढ़ शब्द है। इस प्रकार शंकर के लिए रुढ़ महादेव, शब्द भी गणेश का ही पर्याय है। देव गणों का ईश होने से वही गणेश हैं तो बड़ा देव होने से वही देवाधिदेव, महादेव, भी हैं। महाभारत के अनुसार स्वयं शंकर ने ही अपने पुत्र को गणेश की उपाधि प्रदान की। अध्याय-2 में हम विस्तार से देखेंगे कि शंकर भी कभी गणेश कहे जाते थे।
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1. इन्द्र के लिए ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 मंत्र लिखे गये हैं। उसके बाद अग्नि का स्थान है जिसके लिए 200 मंत्र लिखे गये हैं।
6. सुरेन्द्र
सुरेन्द्र को सुरों (शराबियों) का इन्द्र अर्थात् शराबियों का सम्राट तो कहा जा सकता है। परन्तु उसे देवताओं का राजा नहीं कहा जा सकता है। सुरेन्द्र शब्द को देवेन्द्र या देवराज का पर्याय भी नहीं कहा जा सकता है। कारण शराबियों के राजा (सुरेन्द्र) और देवताओं के राजा देवेन्द्र में कोई समानता नहीं है। परन्तु पौराणिक ग्रन्थों में ‘सुर‘ शब्द देवता और ‘सुरेन्द्र‘ देवराज के लिए आया है। अतः पौराणिक ग्रन्थों में ‘सुरेन्द्र‘ शब्द ज्येष्ठराज देवराज
की तरह गणेश के लिए ही आया है। ऐसा मानना चाहिए।1 परन्तु इसे गणेश का पर्याय नहीं माना जा सकता है।
7. व्रातपति
गणेश को व्रातपति कहकर भी याद किया गया है। अथर्ववेद के गणपति उपनिषद् में लिखा है कि मैं व्रातपति को नमस्कार करता हूं। गणपति को प्रणाम करता हूं। प्रथम पति को प्रणाम करता हूं। मैं लम्बोदर, एकदन्त, विघ्न
विनाशक, शिवतनय, श्री वरदमूर्ति को बारंबार प्रणाम करता हूं।2 इसी प्रकार शुक्ल युजर्वेद की माध्यन्दिन संहिता में भी गणेश को व्रातपति कहकर नमन किया गया है।3 इस प्रकार प्राचीन काल से गणेश वात के पति कहे जाते रहे हैं। वात/व्रात्य वैदिक साहित्य में कृषक को कहा गया है।4 ऋग्वेद में भी व्रात्य की महिमा गायी गयी है।5 अथर्वर्वेद में व्रात्य को प्रजापति भी कहा गया है। विष्णु, शिव, ब्रह्मा, वरूण, इन्द्र इत्यादि को बात कहकर याद किया गया है।6 इस प्रकार समस्त कृषक समाज और उसके नायक बात कहे गये हैं। ऐसे व्रात समाज के विशिष्ट नायक/गणेश को व्रातपति कहा गया तो आश्चर्य कैसा?
इस प्रकार गणेश को अनेक पर्यायवाची हैं संक्षेप में गणेश के पर्यायवाची शब्द निम्न हैं-
1. गणेश 11. विनायक २१. नेता, इत्यादि
2. गणपति 12. नायक
3. गणाधिपति 13. देवराज
4. गणेश्वर 14. ज्येष्ठराज
5. गणधीश गणनाथ 15. देवेन्द्र
6. गणनायक 16. सुरेन्द्र
7. जनगण नायक 17. व्रातपति
8. सर्वेश्वर 18. विशपति
9. महादेव 19. विशाम्पति
10. देवाधिदेव 20. असुरेन्द्र
गहराई से देखा जाय तो राजा, सम्राट, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राष्ट्राध्यक्ष, जैसे शब्द भी गण का नेता या नायक, विशिष्ट नायक, विनायक अथवा गणेश के ही पर्याय हैं। अपने कर्मों, अपनी योग्यता और समाज के लिए उसकी उपयोगिता के बल पर ही कोई भी व्यक्ति, महामानव, देवता, गणेश जैसे महान् पद को प्राप्त कर सकता है। जैसे प्राचीन भारत अर्थात् वैदिक भारत में किसी भी जाति/कबीले का कोई भी महामानव राजा/सम्राट बनकर क्षत्रिय पद को प्राप्त कर सकता था अथवा कवि, लेखक, गायक बनकर ब्राह्मण बन सकता था। वैसे ही किसी भी जाति या धर्म का महामानव देवत्व को प्राप्त कर अन्ततः समाज या राष्ट्र का विशिष्ट नायक विनायक अथवा समस्त देवगणों का स्वामी अर्थात् गणेश बन सकता था। आगे हम हस्तीमुख गणेश की सामाजिक पृष्ठभूमि और उनके देवत्व प्राप्ति के आधार पर इत्यादि का विश्लेषण करेंगे।
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1. गणानां त्वा गणनाथं सुरेन्द्र कविं कवीनायतिमेध विग्रहम्।
ज्येष्ठराज वृषभः केतुमेक स नः श्रृण्वन्नतिभि सीद शश्वतो।।
–गणेश तापिनी उपनिषद् 1/15
सर्वाग्रे तव पूजा च मया दन्ता सुरोत्तमम् ।
सर्वपूज्यश्च योगीन्द्रो भव वत्सेत्युवाचतम् ।।
–ब्रह्म वैवर्त पुराण, गणपति खण्ड 13/2,
मिलायें, ब्रह्म पुराण 114/6
2. नमो वातपतये । नमो गणपतये। नमः प्रथम पतये।
नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विज बिनाशिने शिवसुताय
श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ।।
–गणपति उपनिषद् 10
3. नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो वातेभ्यो
व्रातपतिभ्यश्च वो नमः ।। -शुक्ल यजुर्वेद 16/25 |
4. देखें अथर्व, 15/1/2, 15/1/3-5 15/2/17, 15/3/9 15/8/1, 10/5/34 इत्यादि।
5. ब्रांत वातं गणं सुशप्तिरग्नेर्भामं मरुतोमोज ईमहे।
–ऋ. 3/26/6, मिलायें ऋ. 6/75/9, 10/57/5, इत्यादि।
6. अथर्व; 10/5/34, 15/1/4, 15/V2, 15/1/3, इत्यादि।
गणेश बनने की कसौटी/योग्यताएं
पीछे हमने देखा कि गणेश एक पदवी है जिसे कोई व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। प्रश्न उठता है कि ‘गणेश‘ पद प्राप्त करने की आवश्यक योग्यता क्या है? जैसे- राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जैसे पदों को प्राप्त करने की कुछ योग्यताएं होती है वैसे ही ‘गणेश‘ ‘विनायक‘ जैसी पदवी को प्राप्त करने की भी आवश्यक शर्तें हैं। उनकी कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही कोई भी व्यक्ति ‘गणेश‘ कहलाने का अधिकारी हो सकता है। अब तक के विश्लेषण से जो तथ्य प्राप्त हुए हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि ‘गणेश‘ बनने के लिए प्रमुख निम्न योग्यता का होना आवश्यक है-
1. ‘गणेश‘ बनने की पहली योग्यता है कि उसे ‘देवता‘ होना चाहिए । ‘देवता‘ सबसे बड़े दाता को कहते हैं। धन देने वाला, ज्ञान देने वाला, विकास करने वाला, उपयोगी, ज्ञान विज्ञान की उपलब्धियां देने वाला, खुशहाली लाने वाला, जनगण को दिशा देने वाला, बुराई को नष्ट कर अच्छाई लाने वाला, दुष्टों से लोगों को बचाने वाला, संसार को विकास के मार्ग पर ले जाने वाला, कल्याणकर्ता, जैसे गुणों से युक्त कोई भी ‘देवता‘ कहलाने का अधिकारी है। इस कसौटी पर खरा उतरने के कारण ही वैदिक ऋषियों ने इन्द्र1, अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, तारे, हवा, पानी, नदी, पहाड़, वनस्पतियों, ऊषा, अन्धकार, प्रकाश, मेंढ़क2, उल्लू, बिल्ली, साँप, किसान3, बाज-गरुण, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, हनुमान, लक्ष्मी, दुर्गा, जैसे मानवों, ग्रहों, प्राकृतिक शक्तियों, पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं तक को देवता कहा है। ऐसे देवता अपने गुणों से द्युतिमान होते हैं और वे अपना प्रकाश फैलाते हैं अर्थात ये संसार को भी प्रकाशित करते हैं। इसीलिए यास्क ने देवता की परिभाषा देते हुए लिखा है-
“देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतवाद वा”4 (अर्थात सारे भोज्य पदार्थों आदि को देने वाला, प्रकाशित होने वाला और सारे संसार को प्रकाशित करने वाला देवता है।)
इस प्रकार गणेश के लिए देवता होना पहली योग्यता है। देवताओं में सबसे बड़ा देवता हो गणेश बन सकता है।
2. गणेश के लिए दूसरी योग्यता है देवता का मानव होना । क्योंकि गणेश को मानव समाज का संचालन करना होता है। मुख्य रूप से मानव समाज का नेतृत्व करने वाला श्रेष्ठ देवता ही गणेश बन सकता है। आगे अध्याय दो में हम देखेंगे कि अब तक जितने को गणेश उपाधि दी गयी वे सभी मानव या मानव समूह थे।
3. इसके लिए जाति, लिंग, आयु, धर्म, इत्यादि का कोई स्थान नहीं है। किसी भी जाति, लिंग, (स्त्रीलिंग पुल्लिंग) आयु, धर्म, का व्यक्ति गणेश बन सकता है।
4. गणेश बनने की चौथी योग्यता है कि उसका दिमाग तेज चलता हो अर्थात् इसके लिए उसका शिक्षित होना आवश्यक है। साक्षर अथवा पढ़ा-लिखा होना उसके लिए आवश्यक नहीं है। अर्थात् अनपढ़ भी गणेश बन सकता है।
5. गणेश को देश व समाज की रक्षा करनी पड़ती है। उसे विकास के पथ पर आगे ले जाना होता है। अतः उसे सेना के संचालन में भी निपुण होना चाहिए। साथ ही उसे जनता को दिशा देने के लिए शब्द-गण अर्थात् भाषा की भी जानकारी होनी चाहिए। बिना भाषा के वह जनता के दिलों को जीत नहीं सकता है। यही कारण है कि सैन्य गण, शब्द गण के स्वामी को भी गणेश की संज्ञा दी गयी।
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1. इंद्र वेदों का सबसे बड़ा देवता है। उसके लिए ऋग्वेद में सबसे अधिक 250 मंत्र लिखे गये है।
2. ऋ. 7/103/6; 7/103/10, मिलायें अथर्व, 5/15/17
3. ऋ. 3/26/6; 6/75/9, 10/57/5; अथर्व, 15/1/1-8, 15/1/2; 15/1/3; 15/1/4, 15/1/5, 15/2/7,
15/3/9, 10/5/34 इत्यादि; ज, सं. 16/25
4. यास्क, निरुक्त 3/7/4/15
6. उसमें नेतृत्व अथवा नायकत्व1 का गुण हो। यही कारण है कि “विशिष्ट नायकेन इति विनायकः” कहकर गणेश को याद किया गया।
7. भारतीय समाज में गणेश होने के लिए व्यक्ति का कृषक अथवा कृषि का सहायक होना भी एक आवश्यक शर्त रही है। हो भी क्यों न? कृषि प्रधान भारत अथवा कृषकों के भारत का नेतृत्व करने वाला दूसरा कैसे हो सकता था। शासन करने वाले क्षत्रिय अथवा ब्रह्म (शब्द) से खेलने वाले ब्राह्मण भी तो कृषक ही होते थे। फिर गणेश किसी दूसरे को कैसे बनाया जा सकता था। यही कारण है कि गणेश को कृषक के पर्याय ‘वात्य‘ के आधार पर ‘व्रातपति‘2 कहकर नमन किया गया है। यह भी एक प्रमाण है कि अब तक के ब्रह्मा, (कश्यप), विष्णु, शिव, इन्द्र, बृहस्पति चार्वक, मनु, लक्ष्मी, बुद्ध, महावीर, जैसे गणेश कुर्मी या कृषक समाज के अंग रहे हैं। (विस्तृत विवरण आगे देखें)
8. कोई भी व्यक्ति जो इस दुनिया को सुन्दर बनाता है अथवा बनाने के लिए कार्य करता है वह गणेश बन सकता है। ऐसा व्यक्ति जो स्वर्ग, नरक, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, भाग्य, पुनर्जन्म जैसी काल्पनिकता के लिए कार्य करता हैं, घी आदि पौष्टिक पदार्थों की अत्यधिक हानि करता है तथा मात्र पूजा-पाठ, मंत्र जाप, माला जाप, गंगा स्नान, जैसे कर्मों को करने वाला या इनकी वकालत करने वाला गणेश नहीं बन सकता है। ऐसे लोग जनता के लिए पुजारी हो सकते हैं। उनके पूज्य नहीं हो सकते है। अतः उनके देवता बनने का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर गणेश कैसे हो सकते हैं। यही कारण है स्वर्ग लोक आत्मा- परमात्मा जैसी काल्पनिकता के लिए लोगों को मूर्ख बनाकर उनका धन हड़पने वाले वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मणों में से कोई भी गणेश नहीं बना। ज्ञान के प्रसार के साथ स्वयं को पूज्य और अन्य वर्णों को नीच से नीचतर करने वाले और स्वयं को धरती का देवता बताने वाले ब्राह्मणों की पोल खुलती जा रही है कि वे कभी भी पूज्य नहीं रहे। वे तो मात्र पुजारी ही रहें। जजमान ही उनके पालनकर्ता थे। सत्य के उजागर होने के बाद वे अपनी मूल स्थिति को प्राप्त होते जायेंगे। अर्थात् उन्हें भी मूल धारा में आना होगा। कृषक समाज और उनकी वैदिक संस्कृति ही यहां की मूल धारा है।
9. गणेश बनने के लिए व्यक्ति का पागल, दिवालिया, भ्रष्टाचारी, गद्दार, देश व समाज द्रोही, संकुचित मानसिकता वाला, स्वार्थी, अपराधी, इत्यादि होना अयोग्यता मानी जायेगी। देश व समाज को जुए में हारने वाला युधिष्ठिर हो अथवा राष्ट्र को अपने अंहकारवश स्वप्न के आधार पर किसी ‘भिखारी‘ को दान में देने वाला हरिश्चन्द्र ही क्यों न हो, धार्मिकों द्वारा अपने दान-दक्षिणा (बिना श्रम किए धन प्राप्त करने की कला) के लिए अज्ञानी जनता को पुण्य का प्रलोभन देकर धर्मराज कहे जा सकते हैं, परन्तु, ऐसे लोग गणेश नहीं बन सकते। क्योंकि उनके कृत्य राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोगों को धर्मराज कहना धर्म शब्द का अपमान है।
इस प्रकार इन योग्यताओं तथा ऐसी अन्य योग्यताओं को धारण करने वाला कोई भी मानव महामानव ‘गणेश‘ बनकर प्रथम पूज्य हो सकता है। ध्यान रहे समय के साथ योग्यताएं घटती-बढ़ती रहती हैं।
…….
1. गुणग्रामार्चितो नेता क्रियते स्वो जनैरिति
गणेशत्वेन शंसन्तं गुणाब्धिं तं मुहुर्नुमः ।।
–उद्धत कल्याण गणेशांक वर्ष 48, गीता प्रेस गोरखपुर, पृ.70
2. नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो बातेभ्यो
व्रातपतिभ्यश्च वो नम…..।। –शुक्ल यजु 16/25, मिलायें
ऋ.3/26/6; 6/75/9; 10/57/5; अथर्व, 15/1 से 15/8 तक के मंत्र, तथा आगे, गणपति उपनिषद 10, इत्यादि।
गणेश कोई व्यक्ति नहीं पदवी
अभी हमने देखा कि गणेश, गणपति, गणनायक, जनगण नायक, विनायक, गणाधीश, गणेश्वर, सर्वेश्वर, देवराज, ज्येष्ठराज, महादेव, देवाधिदेव इत्यादि शब्द पर्यायवाची हैं। देवों में या देवगणों में जो सबसे अधिक उपयोगी श्रेष्ठ अथवा सबसे बड़ा दाता होता है, वही गणेश अथवा विशिष्ट नायक विनायक कहलाने का अधिकारी होता है। वही सबका स्वामी/ईश्वर/राजा सम्राट विराट/महादेव हो सकता है। इसके लिए सबका क्षेमकर्ता होना आवश्यक है। देवत्व भी ऐसे ही महामानवों को प्रदान किया जाता रहा है। मनु, कश्यप (ब्रह्मा) शिव, विष्णु, इन्द्र, राम, हनुमान, कृष्ण, वेन, पृथु, बुद्ध, जैसे मानव महामानव और उसके बाद के महापुरुष इसीलिए देवता की कोटि में गिने गये। इन तथा ऐसे ही समस्त देवताओं में सर्वश्रेष्ठ देवता ही गणेश कहलाता रहा है। यह तो पदवी रही है, जिसे सर्वश्रेष्ठ देवता को प्रदान किया जाता रहा है।
आगे हम देखेंगे कि प्राचीन काल से लेकर हस्ती गणेश तक कितने महामानवों देवों को गणेश की पदवी प्राप्त हुई और इस पदवी को प्राप्त करने के पीछे उनकी कौन-सी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक इत्यादि भूमिका रही है। हम यह भी देखेंगे कि आज जिस हस्तीमुख गणेश की पूजा होती है, वह कौन था? उनका असली नाम क्या था? उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक भूमिका क्या थी?