आरक्षण की धुरी पर
On the Axis of Reservation
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लेखक की कलम से...
1990 में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री वी. पी. सिंह द्वारा मण्डल आरक्षण की घोषणा क्या हुई, सम्पूर्ण समाज में जैसे भूचाल आ गया। आरक्षण पाने वाली पिछड़ी जातियां लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त आरक्षण से जहां उत्साहित थीं, वहीं अवर्ण जातियाँ जो (S.C., S.T.,O.B.C.) जैसे वर्णो में न रखी जाकर किसी भी वर्ण में नहीं है, आरक्षण के विरोध में सड़को पर उतर आयीं। आरक्षण के पक्ष और विपक्ष को लेकर चारों और तोड फोड, आन्दोलन, आगजनी, बगावत तथा विद्रोह के स्वर सुनाई देने लगे। अवर्ण समाज के कितने नौजवानों ने आत्मदाह कर लिया इस आशंका से कि हाय हमारा क्या होगा। कुछ लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त किया कि इससे तो देश टूटकर बिखर जायेगा तो कुछ लोगो ने कहा कि हजारों जातियों में बंटा भारतीय समाज दो वर्गों में सिमट जायेगा। इससे राष्ट्रीय जातीय एकीकरण को बल मिलेगा। विद्वानों के बीच सामाजिक न्याय, आरक्षण जैसे शब्द चर्चा के विषय बन गये। हजारों वर्षों से वर्ण व्यवस्था रुपी आरक्षण की चक्की में पिस रहा दलित और पिछड़ा समाज जहां उत्साहित था कि अब उसके भी विकास का रास्ता खुल जायेगा। दलित समाज इसलिए उत्साहित था कि चलो आरक्षण व्यवस्था की रक्षा करने वालों की संख्या में वृद्धि होगी। अभी तक तो हमारे प्रार्थना पत्र को आरक्षण विरोधी शक्तियाँ फाड़कर फेक देती थीं। और योग्य नहीं मिले ऐसा दिखाकर खाली स्थान को अवर्णो से भर लेती थीं। सामान्य इसलिए नहीं लिखा क्योकि सामान्य के अर्न्तगत S.C., S.T., O.B.C, तथा अवर्ण सभी आ जाते हैं अर्थात भारत की 100 प्रतिशत आबादी सामान्य वर्ग में आ जाती है। अवर्ण तथाकथित लावारिश शब्द सवर्ण तो मात्र 25 प्रतिशत ही हैं। एक तरफ आरक्षण को लेकर 52 प्रतिशत O.B.C. उत्साहित थे वहीं 25 प्रतिशत अवर्ण समाज के लोग जो हजारों वर्षों से वर्ण आरक्षण का लाभ ले रहे थे और अधिकांश प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाये हुए थे, आन्दोलित हो उठे कि हाय हमारे बच्चों का क्या होगा। इसके कारण तो अन्ततः हमारा समाज कहीं शूद्र की श्रेणी में न आ जाए। यही कारण था कि अवर्णो द्वारा आरक्षण का विरोध होने लगा। इस विरोध और समर्थन के कारण आरक्षित और अनारक्षित दो वर्गों में समाज बंटता या सिमटता जा रहा है। कुछ लोग इसे शुभ और देश के हित में देखते हैं क्योंकि S.C., S.T., O.B.C. जैसी दलित और पिछड़ी जातियां (देश की 85 प्रतिशत आबादी) एक होने को अग्रसर हैं। उन्हें लगता हैं कि इससे शोषक जातियों पर नकेल कसेगी। दूसरी ओर अवर्ण जातियों को लगता हैं कि इससे तो उनकी स्थिति दयनीय होती जायेगी। इसलिए वे आरक्षण का विरोध करती हैं और तरह तरह के हथकन्डे अपनाती हैं। उनका यह तर्क कुछ हद तक विचारणीय है कि इससे तो योग्यता की हत्या होगी, जिससे देश विकास के रास्ते से भटक जायेगा और योग्य उम्मीदवारों में विक्षोभ पैदा होगा। इससे समाज में संघर्ष की स्थिति पैदा होगी। आरक्षण विरोधियों का एक तर्क यह भी है कि जातीय आधार पर दिया जाने वाला यह आरक्षण जातिवाद को जन्म देता है। अतः आरक्षण के जातीय आधार को समाप्त कर उसे आर्थिक आधार के साथ देना चाहिए। इससे सम्पूर्ण समाज के प्रत्येक जाति/वर्ण के गरीबों को आरक्षण का लाभ मिलेगा। देखने को यह तर्क तो अच्छा लगता है परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि S.C., S.T., O.B.C. में गरीबो की संख्या सर्वाधिक है जो हजारों वर्षों तक सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक रूप से शोषण, अन्याय, अत्याचार, की शिकार रही हैं। उन्हें कानून बनाकर उच्च वर्णो द्वारा पीछे ढकेलने का कार्य किया गया। आज उच्च वर्णो या जातियों के लोग क्या यह कह सकते हैं कि अनकी उच्चता, श्रेष्ठता वर्ण आरक्षण की देन नहीं है। निश्चय ही उन्हें उच्चता प्रदान करने में वारक्षण व्यवस्था की भूमिका महत्व पूर्ण रही है। इस वर्ण आरक्षण व्यवस्था ने न केवल दलितों पिछडोंको पीछे ढकेला वरन उन्हें गरीब बनाने का भी कार्य किया। देश को अज्ञानियों अशिक्षितों का देश तथा गुलाम बनाने में इस वर्षारक्षण व्यवस्था की भूमिका को कोई भी नकार नहीं सकता। दूसरे आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की स्थिति में घनी और उच्च जातियों के लोग ही गरीब की श्रेणी में सर्वाधिक आ जायेगें, वास्तविक गरीब तो पीछे ढकेल दिए जायेंगे। कारण गरीबी का प्रमाण पत्र कौन और कैसे देता है, इसे भारतीय समाज अच्छी तरह जानता, समझता और देखता है।
एक कवि ह्दय तथा जागरुक समाज शास्त्री के रूप में हमने भी मण्डल आरक्षण जनित तत्कालीन भारतीय समाज की क्रिया प्रतिक्रिया को निकट से देखा और उनकी घड़कनों को सुना। इतना ही नहीं आज भी आरक्षण के विरोध और समर्थन में बन्द, आन्दोलन, आग जनी तोड़ फोड़ की घटनाएं होती रहती हैं। यह समर्थन और विरोध कब तक चलेगा कहा नहीं जा सकता। डर है कि कहीं 85 प्रतिशत आरक्षित समाज संगठित होकर 15 प्रतिशत आरक्षण विरोधी अगड़ी जातियों के विरुद्ध न खड़ा हो जाय। 52 प्रतिशत O.B.C. को 27 प्रतिशत आरक्षण दे तो दिया गया पर देते ही क्रीमी लेयर (मलाईदार परत) लागू कर दिया गया। ऐसा कर जागरुक धन वैभव से थोडे आगे पहुचें पिछड़ो को आरक्षण का लाभ लेने से वंचित कर दिया गया। तर्क था कि इससे गरीब पिछड़ी जातियों के लोगों का हित होगा। पिछड़ी जाति (O.B.C.) के लोगों को लगा कि ऐसा पिछड़ी जातियों को पीछे ढकेलने की साजिश के अन्तर्गत किया गया। क्रीमी लेयर में आ गये पिछड़ी जाति के लोग जागरूक, शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो गये है, वे नौकरी लेने में भी समर्थ हैं अतः उन्हें क्रीमी लेयर के नाम पर आरक्षण से बाहर करो ओर शेष पिछडी जाति के लोग न तो जागरुक हैं और न ही शिक्षित तथा आर्थिक दृष्टि से ही सम्पन्न है। अतः वे नौकरी नहीं ले पायेंगे। इसी उद्देश्य से पिछडो में क्रीमी लेयर का सिद्धान्त लागू किया गया।
अब पिछड़ी जातियों में विकसित पिछडा, पिछडा और सर्वाधिक पिछडा का शिगूफा छोडा जा रहा है। खुलकर भा.ज.पा. द्वारा कहा जा रहा है। कि अहीर और कुर्मी जैसी जातियों के लोगों ने सर्वाधिक आरक्षण हडप लिया है, अतः पिछडो में पिछड़ा, सर्वाधिक पिछडा का विभाजन कर उन्हे आरक्षण के भीतर आरक्षण का कोटा दिया जाय। इसी प्रकार दलितों को भी बाटने के लिए दलित, अति दलित का नारा दिया जा रहा ही उनका तर्क है कि इससे अति पिछडी तथा अति दलित जातियों का भला होगा। परन्तु पिछडी तथा दलित जातियों को लगता है कि ऐसा पिछडी तथा दलित जातियों के बीच फूट डालने तथा उनकी एकता को छिन्न भिन्न करने के लिए किया जा रहा है। उनका कहना है कि पिछडी जातियों को मिले 27 प्रतिशत आरक्षण के बाबजूद सरकारी नौकरियों में सात प्रतिशत ही नौकरियां मिल पायी हैं। उन्हें प्राप्त आरक्षण कोटे की 19-20 प्रतिशत नौकरियाँ अभी भी पिछड़ों का इन्तजार कर रही हैं। सरकार इन खाली आरक्षित पदो को सर्वाधिक पिछड़ों से क्यों नहीं भरती? सरकार को चाहिए कि ऐसे पिछडों को वरीयता देकर ऐसे खाली पड़े पदों को उनसे भर दे। परन्तु ऐसा न कर सरकारें पिछड़ो में फूट डालने में लगी हुई हैं। दलितों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। इससे दलितों व पिछड़ो की इस आशंका को बल मिलता हैं कि यह सब दलितों पिछडो को पीछे बनाये रखने के लिए ही किया जा रहा है।
एक समाज वैज्ञानिक के नाते मेरी स्पष्ट मान्यता हैं कि पिछड़े और दलित जातियाँ (S.C., S.T.. O.B.C.) को मिला आरक्षण कोटा शीघ्र पूरा किया जाये और दस वर्ष तक लगातार देखा जाय कि वही स्तर बना हुआ है तो उसके बाद आरक्षण व्यवस्था को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाये। योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते, इसलिए आरक्षण कोटा पूरा नहीं होता, का रोना बन्द किया जाय। यह तो बहाना है। सभी जानते हैं कि पिछड़ी तथा दलित जातियों में अब योग्य उम्मीदवारों की कमी नहीं है। इन जातियों के बड़ी संख्या में योग्य नौजवान मारे मारे फिरते है और मजदुरी करते हुए दिखायी देते हैं। कौन मान सकता है
कि 85 प्रतिशत दलितों और पिछड़ों में योग्य उम्मीदवार नहीं है और 15 प्रतिशत अवर्णो में योग्य है जो 70 प्रतिशत नौकरियों पर कब्जा जमाये बैठे हैं। भारत के लोग जानते हैं कि ऐसा साम, दाम दण्ड, भेद तथा जातिवाद एवं वर्णवाद के कारण हुआ है।
एक समाजशास्त्री और कवि के रुप में मैंने भी 1990-91 के आन्दोलन रत भारतीय समाज की आरक्षण के समर्थन और विरोध के स्वरों को सुना तथा देखा था और आज तक देखता रहा हूँ। प्रस्तुत काव्य संग्रह आरक्षण की धुरी पर हजारों वर्षों से चले आ रहे वर्ण आरक्षण के बीच मण्डल आरक्षण जनित भारतीय समाज की क्रिया प्रतिक्रिया, समर्थन विरोध की ध्वनि प्रति ध्वनि, और उनकी धड़कनो की काव्यमय प्रस्तुतीकरण है। इसमें वारक्षण तथा मण्डल आरक्षण के बीच आरक्षण के रचनात्मक
तथा विध्वंसात्मक पहलूओं के साथ ही आरक्षित अनारिक्षत दोनो ही वर्गों की भावनाओं को काव्य का विषय बनाया गया है।
इस काव्य संग्रह की 90 प्रतिशत से अधिक रचनाएं 1990 के मण्डल आरक्षण लागू करने की घोषणा के माह की ही उपज हैं। शिखर समन्वयक ओम प्रकाश अग्रवाल ने पाण्डुलिपि देखते ही उन्हे पुस्तक के रुप में इसी नाम से प्रकाशित करने की घोषणा कर दी और पुस्तक कम्पोज हो गयी। परन्तु इसी बीच आरक्षण विरोधियों को जब खबर लगी तो उन्होंने दबाव डालकर पुस्तक को छपने से रोक दिया। तब से लेकर अब तक यह पुस्तक दबी पड़ी रही। वही पुस्तक “आरक्षण की धुरी” पर
उसी कलेवर को लेकर कुछ नवीन रचनाओं के साथ अब आ रही है। इसका श्रेय दलित और पिछड़ी जातियों के संगठनों तथा उनके जागरुक लोगों को जाता हैं। मैं उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
